Why Celebrate Durga Puja: पूरे भारत में जब नवरात्रि के नौ दिनों तक मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा का दौर चलता है, तब पश्चिम बंगाल खासकर कोलकाता का नज़ारा बिल्कुल अलग होता है।
यहां नवरात्रि के व्रत-उपवास का महत्व कम और दुर्गा पूजा के उल्लास, उत्सव और सांस्कृतिक धूमधाम का जोर ज्यादा होता है।
लेकिन ऐसा क्यों? क्या वजह है कि बंगाल इस पर्व को एक बेटी के मायके आगमन के रूप में मनाता है?
आइए, विस्तार से जानते हैं इस रोचक और आकर्षक परंपरा के बारे में…
नवरात्रि और दुर्गा पूजा में अंतर क्या है?
दोनों ही त्योहार देवी दुर्गा को समर्पित हैं, लेकिन इन्हें मनाने का स्वरूप एकदम अलग है।
नवरात्रि का स्वरूप:
देश के अधिकांश हिस्सों में नवरात्रि एक मुख्य रूप से धार्मिक और आध्यात्मिक पर्व है।
इन नौ दिनों में भक्त मां दुर्गा के नौ अलग-अलग रूपों की पूजा करते हैं।
कई लोग व्रत रखते हैं, मां को सात्विक भोग लगता है, और आध्यात्मिक साधना पर जोर दिया जाता है।
यहां देवी एक शक्तिशाली माता के रूप में पूजी जाती हैं जो भक्तों की रक्षा करती हैं और उनकी मनोकामनाएं पूरी करती हैं।
दुर्गा पूजा की मान्यता: देवी नहीं बेटी
बंगाल में, यह पर्व धार्मिक होने के साथ-साथ एक सबसे बड़ा सामाजिक और सांस्कृतिक उत्सव बन जाता है।
यहां देवी दुर्गा को मां के साथ-साथ घर की बेटी के रूप में देखा जाता है।
मान्यता है कि वह हर साल अपने ससुराल कैलाश से अपने चारों बच्चों – लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश और कार्तिकेय के साथ अपने मायके (धरती) पर आती हैं।
इसलिए, यहां उपवास का नहीं, बल्कि खुशी से उनके स्वागत, भोजन-भक्ति और फिर विदाई का समय होता है।
पूरा शहर एक उत्सव में डूब जाता है, जहां पंडाल, कला, संगीत, भोजन और समाज का मेल देखने को मिलता है।
दुर्गा पूजा का पांच दिवसीय उत्सव: षष्ठी से दशमी तक का सफर
बंगाल में दुर्गा पूजा मुख्य रूप से पांच दिनों तक धूमधाम से मनाई जाती है, हालाँकि महालया के दिन से ही इसकी शुरुआत मानी जाती है।
-
महालया: मां के आगमन की आहट
महालया शरद ऋतु के आगमन और दुर्गा पूजा की शुरुआत का संकेत देता है। इस दिन सुबह-सुबह आकाशवाणी की जाती है, जिसमें बंगाली समुदाय के प्रसिद्ध कथावाचक बिरेन्द्र कृष्ण भद्र की आवाज़ में देवी दुर्गा के पृथ्वी पर आगमन की कहानी सुनाई जाती है। यह माना जाता है कि इसी दिन मां धरती की ओर प्रस्थान करती हैं। -
षष्ठी: बोधन और आगमन
षष्ठी के दिन ही पूजा की औपचारिक शुरुआत होती है। इस दिन ‘बोधन’ की रस्म होती है, यानी देवी को जागृत किया जाता है। मान्यता है कि इसी दिन मां दुर्गा अपने बच्चों के साथ धरती पर पहुँचती हैं। पंडालों में प्रतिमाओं की आँखें खोली जाती हैं (चक्षुदान) और उनमें प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। -
सप्तमी: नवपत्रिका का स्नान
सप्तमी की सुबह एक बहुत ही खास रस्म होती है – ‘नवपत्रिका स्नान’। इसमें नौ पवित्र पौधों (जिनमें केले का पौधा प्रमुख है) को एक साथ बांधकर एक सजी-धजी स्त्री के रूप में स्नान कराया जाता है और फिर उन्हें भगवान गणेश के पास रखा जाता है। ये नौ पौधे देवी दुर्गा के नौ रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं। -
अष्टमी: संधि पूजा और पुष्पांजलि
अष्टमी सबसे महत्वपूर्ण दिनों में से एक है। इस दिन सुबह हज़ारों लोग पंडालों में जाकर मां को फूल अर्पित करते हैं, जिसे ‘पुष्पांजलि’ कहते हैं। लेकिन सबसे खास होती है ‘संधि पूजा’। यह वह क्षण होता है जब अष्टमी खत्म होकर नवमी शुरू होती है। मान्यता है कि इसी समय देवी दुर्गा ने महिषासुर का वध किया था। इस पूजा में 108 कमल के फूल और दीप जलाकर मां की आराधना की जाती है। -
नवमी: भोग और आरती
इस दिन मां को विशेष ‘भोग’ चढ़ाया जाता है। पुराने समय में पशु बलि की प्रथा थी, लेकिन अब ज्यादातर जगहों पर इसकी जगह फल-सब्जियों की बलि दी जाती है। नवमी की रात को ‘धुनुचि नृत्य’ बहुत ही आकर्षक लगता है, जहां भक्त लकड़ी की एक विशेष थाली में धूप जलाकर नृत्य करते हैं। -
दशमी: विसर्जन और सिंदूर खेला
दशमी का दिन बेटी की विदाई का दिन होता है। इस दिन महिलाएं मां दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती और गणेश को मिठाई खिलाकर और उन्हें सिंदूर लगाकर विदा करती हैं। इसके बाद, महिलाएं एक-दूसरे के चेहरे पर सिंदूर लगाती हैं, जिसे ‘सिंदूर खेला’ कहते हैं। यह शुभता, सुहाग और समृद्धि का प्रतीक है। अंत में, जुलूस के साथ मां की प्रतिमाओं को जल में विसर्जित कर दिया जाता है, जिसके साथ ही यह उत्सव समाप्त हो जाता है। मान्यता है कि देवी लक्ष्मी कोजागरी पूर्णिमा तक मायके में रुकती हैं, इसलिए उनकी अलग से पूजा की जाती है।
Our Durga Puja Pandals are nothing less than a work of art..
The passion & dedication of each artist behind every structure reflects the dexterity in their work..
Sharing a visual glimpse of yesterday..#DurgaPuja2025 #DurgaMaa #Bengal #Art pic.twitter.com/k1I7OeTtbc— FIRHAD HAKIM (@FirhadHakim) September 27, 2025
वेश्याओं की मिट्टी से लेकर सार्वजनिक पंडालों तक
दुर्गा पूजा सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि समाज के हर वर्ग को जोड़ने वाला एक सूत्र है।
निशीद्ध भूमि की मिट्टी का महत्व:
एक बहुत ही अनोखी और गहन मान्यता यह है कि दुर्गा प्रतिमा बनाने के लिए मिट्टी में एक विशेष प्रकार की मिट्टी मिलाना जरूरी होता है – वेश्यावाटिका (कोठे) की मिट्टी।
इसके पीछे विचार यह है कि जब कोई व्यक्ति किसी कोठे पर प्रवेश करता है, तो वह सभी पवित्रताओं और बंधनों को दरवाजे पर ही छोड़ आता है।
इसलिए, उस स्थान की मिट्टी को ‘निश्चल’ या अपवित्र माना जाता है।
इस मिट्टी को मिलाने का अर्थ है कि देवी की पूजा के लिए हमें अपने अहंकार और सभी पूर्वाग्रहों को त्यागकर, एक निश्चल और निर्मल मन से उनकी शरण में जाना चाहिए।
सामुदायिक पंडाल: कला और एकजुटता का प्रदर्शन
कोलकाता की दुर्गा पूजा की एक और पहचान है इसके भव्य और कलात्मक पंडाल।
हर मोहल्ला और समिति अपने पंडाल को सबसे अलग और आकर्षक बनाने की कोशिश करती है।
इन पंडालों की थीम दुनिया भर की सामाजिक समस्याओं, ऐतिहासिक घटनाओं या कलात्मक अभिव्यक्तियों पर आधारित होती है। ये पंडाल सामुदायिक सद्भाव, सृजनात्मकता और प्रतिस्पर्धा का केंद्र बन जाते हैं।
Union Home Minister Amit Shah offers prayers at Santosh Mitra Square Durga Puja pandal in Kolkata. pic.twitter.com/RmUgUeDqJ1
— Pooja Mehta (@pooja_news) September 26, 2025
कोलकाता की दुर्गा पूजा सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि बंगाल की आत्मा है।
यह वह समय है जब धर्म, संस्कृति, कला और सामाजिकता का अनूठा मेल देखने को मिलता है।
यहां देवी एक दूर की शक्ति नहीं, बल्कि घर की बेटी बनकर आती हैं, जिसके आगमन पर पूरा परिवार (समाज) उल्लास से झूम उठता है।
यही कारण है कि नवरात्रि के आध्यात्मिक महत्व को स्वीकार करते हुए भी बंगाल का दिल दुर्गा पूजा के इस सांस्कृतिक और सामाजिक उत्सव के लिए धड़कता है।
यह उत्सव हर बंगालवासी की पहचान का एक अटूट हिस्सा है, जो हर साल उमंग और उल्लास के नए रंग भरता है।