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गोटमार मेलाः प्रेमी जोड़े के मौत के बाद शुरू हुई ये खूनी परंपरा, अब तक कई लोगों ने गंवाई जान

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Nisha Rai
Nisha Rai
निशा राय, पिछले 12 सालों से मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इन्होंने दैनिक भास्कर डिजिटल (M.P.), लाइव हिंदुस्तान डिजिटल (दिल्ली), गृहशोभा-सरिता-मनोहर कहानियां डिजिटल (दिल्ली), बंसल न्यूज (M.P.) जैसे संस्थानों में काम किया है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय (भोपाल) से पढ़ाई कर चुकीं निशा की एंटरटेनमेंट और लाइफस्टाइल बीट पर अच्छी पकड़ है। इन्होंने सोशल मीडिया (ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम) पर भी काफी काम किया है। इनके पास ब्रांड प्रमोशन और टीम मैनेजमेंट का काफी अच्छा अनुभव है।

Pandhurna Gotmar Mela: मध्य प्रदेश के पांढुर्णा जिले में हर साल गोटमार मेले का आयोजन होता है।

जिसमें पांढुर्णा और सावरगांव के लोग एक-दूसरे को पत्थरों से मारते हैं।

इस पत्थरबाजी में कई लोग घायल होते है और कई अपनी जान भी गंवा देते हैं। लेकिन फिर भी ये खेल हर साल खेला जाता है।

ऐसा नहीं है कि पुलिस ने इसे रोकने की कोशिश नहीं की लेकिन परंपराओं में बंधे लोग इस खूनी खेल को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है।

इस साल भी इस मेले में पत्थरबाजी के दौरान 32 से ज्यादा लोग घायल हो गए है और 4 की हालत गंभीर है।

क्या है गोटमार मेला… (What is Gotmar fair)

गोटमार मेले का आयोजन महाराष्ट्र की सीमा से लगे मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के पांढुर्णा में हर वर्ष भादो मास के कृष्ण पक्ष में अमावस्या पोला त्योहार के दूसरे दिन किया जाता है।

इस क्षेत्र में मराठी नागरिकों की बहुलता है और मराठी भाषा में गोटमार का अर्थ पत्थर मारना होता है।

शब्द के अनुरूप मेले के दौरान पांढुर्णा और सावरगांव के बीच बहने वाली जाम नदी के दोनों ओर बड़ी संख्या में लोग जमा होते हैं और सूर्योदय से सूर्यास्त तक पत्थर मारकर एक-दूसरे का खून बहाते हैं।

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गोटमार मेले के शुरू होने की 2 कहानियां… (story behind Gotmar fair)

1. प्रेमी जोड़े की मौत से शुरू हुआ खूनी खेल (bloody game started with lovers death) 

गोटमार मेले की परंपरा को लेकर एक किवदंती है ये कि, यह दो गांव की दुश्मनी और एक प्रेमी जोड़ी की याद में शुरू हुआ।

लड़की सावरगांव की थी और लड़का पांढुर्णा का। दोनों एक-दूसरे से प्यार करते थे और दोनों ने चोरी-छिपे प्रेम विवाह भी कर लिया था।

पांढुर्णा का लड़का साथियों के साथ सावरगांव जाकर लड़की को भगाकर अपने साथ ले जा रहा था। उस समय जाम नदी पर पुल नहीं था।

नदी में गर्दन भर पानी रहता था, जिसे तैरकर या किसी की पीठ पर बैठकर पार किया जा सकता था।

ऐसे में लड़का, लड़की को अपनी पीठ पर बैठाकर नदी पार करने की कोशिश कर रहा था, जिसे लड़की के गांववालों ने देख लिया और उन्होंने लड़के व उसके साथियों पर पत्थर मारना शुरू कर दिया।

जब लड़के के पांढुर्णा गांव के लोगों को ये बात पता चली तो वो भी वहां पहुंच गए और उन्होंने भी दूसरे गांव के लोगों को पत्थर मारना शुरू कर दिया।

दोनों गांवों की इस पत्थरबाजी से नदी में फंसा प्रेमी जोड़ा घायल हो गया और जाम नदी में ही उनकी मौत हो गई।

प्रेमियों के मरने के बाद दोनों पक्षों के लोगों को अपनी गलती का एहसास हुआ।

इसके बाद दोनों प्रेमियों के शवों को किले पर मां चंडिका के दरबार में ले जाकर रखा और पूजा-अर्चना करने के बाद दोनों का अंतिम संस्कार कर दिया गया।

इसी घटना की याद में हर साल भादो अमावस्या पर मां चंडिका की पूजा-अर्चना के बाद गोटमार मेले का आयोजन किया जाता है।

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couple drowned in water

2. पिंडारी से जुड़ी दूसरी कहानी (Second story related to Pindari)

एक और कहानी पिंडारी (आदिवासी) समाज से जुड़ी है। प्राचीन मान्यता के अनुसार हजारों साल पहले जाम नदी के किनारे पिंडारी समाज का प्राचीन किला था।

जहां पिंडारी और उनकी शक्तिशाली सेना निवास करती थी। जिसका सेनापति दलपत शाह था, लेकिन महाराष्ट्र के भोसले राजा की सेना ने पिंडारी समाज के किले पर हमला बोल दिया।

अस्त्र-शस्त्र कम होने से पिंडारी समाज की सेना ने पत्थरों से हमला कर दिया। भोसले राजा हार गया। तब से यहां पत्थर मारने की परंपरा चली आ रही है।

300 साल पहले हुई शुरुआत (Gotmar fair started 300 years ago)

इस खेल की शुरुआत 17वीं ई. के लगभग मानी जाती है। कृष्ण पक्ष के दिन यहां बैलों का त्यौहार पोला धूमधाम से मनाया जाता है।

चंडी माता के नाम से मेले की शुरुआत (Fair started in the name of Chandi Mata)

गोटमार मेले की शुरुआत चंडी माता के नाम से होती है। सबसे पहले गोटमार खिलाड़ी चंडी माता मंदिर पहुंचकर पूजा-अर्चना करते हैं।

इसी दिन साबरगांव के लोग पलाश वृक्ष को काटकर जाम नदी के बीच गाड़ते है उस वृक्ष पर लाल कपड़ा, तोरण, नारियल, हार और झाड़ियां चढ़ाकर उसका पूजन किया जाता है।

दूसरे दिन सुबह लोग उस पेड़ और झंडे की पूजा करते है और फिर सुबह 8 बजे से एक-दूसरे को पत्थर मारने का खेल शुरू हो जाता है।

ढोल ढमाकों के बीच भगाओ-भगाओ के नारों के साथ कभी पांढुरना के खिलाड़ी आगे बढ़ते हैं तो कभी सावरगांव के खिलाड़ी।

झंडे के लिए होती है पत्थरबाजी

दोपहर बाद 3 से 4 के बीच खिलाड़ी तेज धार वाली कुल्हाड़ी लेकर झंडे को तोड़ने के लिए उसके पास पहुंचने की कोशिश करते हैं।

ये लोग जैसे ही झंडे के पास पहुंचते हैं साबरगांव के खिलाड़ी उन पर पत्थरों की भारी मात्रा में वर्षा करते है और पांढुर्णा वालों को पीछे हटा देते हैं।

शाम को पांढुर्णा पक्ष के खिलाड़ी पूरी ताकत के साथ चंडी माता का जयघोष एवं भगाओ-भगाओ के साथ सावरगांव के पक्ष के व्यक्तियों को पीछे ढकेल देते है और झंडा तोड़ने वाले खिलाड़ी झंडे को कुल्हाडी से काट लेते हैं।

झंडा टूटने के साथ खत्म होता है खेल

जैसे ही झंडा टूट जाता है, दोनों पक्ष पत्थर मारना बंद करके मेल-मिलाप करते हैं और गाजे बाजे के साथ चंडी माता के मंदिर में झंडे को ले जाते है।

झंडा न तोड़ पाने की स्थिति में शाम साढ़े छह बजे प्रशासन द्वारा आपस में समझौता कराकर गोटमार बंद कराया जाता है।

पत्थरबाजी की इस परंपरा के दौरान जो लोग घायल होते है, उनका शिविरों में उपचार किया जाता है और गंभीर मरीजों को नागपुर भेजा जाता है।

गोटमार मेले ने अब तक ली 13 लोगों की जान (13 people died in Gotmar fair)

खबरों की माने तो साल 1995 से 2023 तक गोटमार मेले में पत्थराबाजी के दौरान करीब 13 लोगों की मौत हो चुकी है

मंदिर में बंद हो जाते हैं भगवान (God locked in the temple)

गोटमार मेले के 3 दिन तक जाम नदी के किनारे स्थित राधा-कृष्ण मंदिर को बंद कर दिया जाता है।

दरअसल मंदिर को पत्थरों से बचाने के लिए मंदिर समिति के लोग टाटियों से ढंक देते हैं ताकि कोई नुकसान न हो।

यही हाल जाम नदी के आसपास रहने वाले लोगों का है। उनके मकान को भी ढका जाता है।

रबर की गेंद का आइडिया भी नहीं आया काम

2001 में प्रशासन ने रबर की गेंद से गोटमार खेलने का सुझाव दिया और इसके लिए खेल स्थल पर रबर की गेंद बिछा दी गई।

शुरू में तो लोगों ने गेंद का इस्तेमाल किया, लेकिन दोपहर होते-होते उन्होंने पास की नदी से पत्थर लाकर एक दूसरे पर बरसाना शुरू कर दिया।

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पत्थरबाजी रोकने के लिए चलाई गोलियां (Bullets fired to stop stone pelting)

इस खूनी खेल को बंद कराने के लिए प्रशासन ने सख्त कदम उठाते हुए पुलिस से गोलियां भी चलवाई थीं। यह गोलीकांड 1978 और 1987 में हुआ था।

इसमें 3 सितंबर 1978 को ब्रह्माणी वार्ड के देवराव सकरडे और 1987 में जाटवा वार्ड के कोठीराम सांबारे की गोली लगने से मौत हुई थी।

इस दौरान पांढुर्णा में कर्फ्यू जैसे हालात बने थे। वहीं पुलिस की ओर से लाठीचार्ज भी हुआ था।

प्रशासन ने कई बार इसको रोकने या इसमें बदलाव करने की कोशिश की, लेकिन उसको हर बार हार लोगों की जिद के सामने हार माननी पड़ी।

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