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गोटमार मेला: 300 साल पुरानी है ये खूनी परंपरा, पुलिस भी नहीं रोक पाई ये जानलेवा खेल

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Nisha Rai
Nisha Rai
निशा राय, पिछले 13 सालों से मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इन्होंने दैनिक भास्कर डिजिटल (M.P.), लाइव हिंदुस्तान डिजिटल (दिल्ली), गृहशोभा-सरिता-मनोहर कहानियां डिजिटल (दिल्ली), बंसल न्यूज (M.P.) जैसे संस्थानों में काम किया है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय (भोपाल) से पढ़ाई कर चुकीं निशा की एंटरटेनमेंट और लाइफस्टाइल बीट पर अच्छी पकड़ है। इन्होंने सोशल मीडिया (ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम) पर भी काफी काम किया है। इनके पास ब्रांड प्रमोशन और टीम मैनेजमेंट का काफी अच्छा अनुभव है।

Gotmar Mela 2025: मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले का पांढुर्णा कस्बा।

हर साल भादो महीने की अमावस्या के बाद, यहां की हवा में एक अजीबोगरीब उत्साह और डर का माहौल छाने लगता है।

यह वह समय होता है जब एक ऐसी अद्भुत और डरावनी परंपरा का आयोजन होता है, जिसे देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं, लेकिन जिसमें शामिल होने का मतलब है मौत को दावत देना।

इसका नाम है – गोटमार मेला‘गोट’ यानी पत्थर और ‘मार’ यानी प्रहार।

नाम से ही स्पष्ट है कि यह मेला पत्थरबाजी का है और इस साल यह खेल 23 अगस्त को पांढुर्णा में खेला जाएंगा।

यहां परंपरा और उन्माद का ऐसा अद्भुत संगम देखने को मिलता है, जहां लोग एक-दूसरे पर जानलेवा पत्थर बरसाते हैं, घायल होते हैं और कभी-कभी जान भी गंवा बैठते हैं।

फिर भी, यह खूनी खेल सदियों से बदस्तूर जारी है।

क्या है गोटमार मेला? (What is the Gotmar Mela?)

गोटमार मेला मध्य प्रदेश के पांढुर्णा और महाराष्ट्र के सावरगांव के बीच बहने वाली जाम नदी के तट पर आयोजित होने वाला एक वार्षिक आयोजन है।

यह मराठी बहुल इलाका है और यहां ‘पोला’ नामक त्योहार के अगले दिन यह मेला भरता है।

सुबह से शाम तक, दोनों गांवों के लोग नदी के दोनों किनारों पर इकट्ठा होते हैं और एक-दूसरे पर पत्थरों की बौछार करते हैं।

यह कोई सामान्य झगड़ा नहीं, बल्कि एक नियमबद्ध, परंपरागत ‘खेल’ है, जिसका उद्देश्य नदी के बीच में गड़े एक झंडे को तोड़ना होता है।

एक ट्रैजिक लव स्टोरी से शुरुआत (The Tragic Love Story)

इस खूनी परंपरा की शुरुआत एक दुखद प्रेम कहानी से जुड़ी है।

किवदंतियों के अनुसार, सावरगांव की एक लड़की और पांढुर्णा के एक लड़के ने चोरी-छिपे प्रेम विवाह कर लिया।

एक दिन, लड़का अपने साथियों के साथ सावरगांव जाकर अपनी पत्नी को लेकर वापस आ रहा था।

उस समय जाम नदी पर कोई पुल नहीं था। लड़के ने लड़की को अपनी पीठ पर बैठाकर नदी पार करनी शुरू की।

तभी सावरगांव के लोगों ने उन्हें देख लिया और पत्थर मारना शुरू कर दिया।

इसकी खबर मिलते ही पांढुर्णा के लोग भी मदद के लिए पहुंचे और दोनों ओर से जबर्दस्त पत्थरबाजी शुरू हो गई।

इस उथल-पुथल में नदी के बीच फँसा वह प्रेमी जोड़ा घायल हो गया और दोनों की डूबकर मौत हो गई।

मौत के बाद दोनों गांव वालों को अपनी गलती का एहसास हुआ।

उन्होंने दोनों के शव को मां चंडिका के मंदिर में ले जाकर पूजा-अर्चना की और फिर अंतिम संस्कार किया।

कहा जाता है कि इसी घटना की याद में और उस प्रेम के प्रतीक के रूप में यह गोटमार मेला शुरू हुआ, ताकि आने वाली पीढ़ियों को उनकी कुर्बानी याद रहे।

झंडे को तोड़ने की जंग (The Flag-Bearing Ritual)

यह मेला सिर्फ अंधाधुंध पत्थरबाजी नहीं है। इसमें एक निश्चित नियम और रिवाज़ का पालन किया जाता है।

मेले से एक दिन पहले, सावरगांव के लोग एक पलाश के पेड़ को काटकर नदी के बीचो-बीच गाड़ते हैं।

इसे झंडे के रूप में सजाया जाता है – लाल कपड़ा, नारियल, फूलों की मालाएं और तोरण चढ़ाए जाते हैं।

अगले दिन, सुबह आठ बजे से पत्थरबाजी शुरू हो जाती है।

पांढुर्णा के खिलाड़ियों का लक्ष्य होता है उस झंडे तक पहुँचकर उसे कुल्हाड़ी से काट देना।

वहीं, सावरगांव के लोगों का काम होता है उन्हें ऐसा करने से रोकना और पत्थरों की वर्षा से उन्हें पीछे धकेलना।

दोपहर बाद तीन-चार बजे के आसपास यह जंग अपने चरम पर पहुंच जाती है।

ढोल-नगाड़ों की गर्जना, ‘भगाओ-भगाओ’ के नारों और ‘चंडी माता की जय’ के जयघोष के बीच पांढुर्णा का कोई बहादुर खिलाड़ी झंडे तक पहुंचने की कोशिश करता है।

अगर वह सफल हो जाता है और झंडा काट देता है, तो खेल समाप्त हो जाता है।

नहीं तो, शाम साढ़े छह बजे प्रशासन की मध्यस्थता में पत्थरबाजी बंद करवाई जाती है।

झंडा टूटने के बाद दोनों पक्ष आपस में गले मिलते हैं और गाजे-बाजे के साथ झंडे को चंडी माता के मंदिर ले जाते हैं।

प्रशासन की मुश्किलें और कोशिशें (Administrative Challenges)

यह एक ऐसी परंपरा है जिसे रोक पाना प्रशासन के लिए बेहद मुश्किल साबित हुआ है।

अब तक 13 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है और सैकड़ों घायल हुए हैं।

प्रशासन ने इसे रोकने या बदलने की कई कोशिशें की हैं:

  • रबर की गेंद का प्रयोग (2001): एक बार प्रशासन ने रबर की गेंदों से यह ‘खेल’ खेलने का सुझाव दिया। शुरुआत में तो लोग मान गए, लेकिन दोपहर तक उत्साह इतना बढ़ा कि लोगों ने नदी से असली पत्थर उठा-उठाकर मारना शुरू कर दिया।

  • गोलीकांड (1978 & 1987): हिंसा को रोकने के लिए पुलिस को दो बार गोली चलानी पड़ी, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई। पूरे इलाके में कर्फ्यू जैसे हालात पैदा हो गए थे।

  • सुरक्षा के इंतजाम: अब हर साल भारी पुलिस बल तैनात रहता है। एम्बुलेंस और डॉक्टरों की टीम मौजूद रहती है। गंभीर रूप से घायलों को नागपुर के अस्पतालों में भेजा जाता है।

परंपरा का नशा (The Addiction of Tradition)

सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर लोग अपनी जान जोखिम में डालकर भी यह खेल क्यों खेलते हैं?

इसके पीछे सदियों पुरानी परंपरा, सामूहिक उन्माद, गांव की ‘इज्जत’ का सवाल और स्थानीय लोगों की अटूट आस्था है।

लोग इसे सिर्फ एक हिंसक कृत्य नहीं, बल्कि अपनी बहादुरी और सामूहिक पहचान का प्रदर्शन मानते हैं।

उनके लिए, यह उस प्रेमी जोड़े को दी जाने वाली एक भावभीनी श्रद्धांजलि है।

मेले के दौरान, आसपास के मंदिरों और घरों को टाटों और बोरियों से ढक दिया जाता है ताकि पत्थरों से उन्हें नुकसान न पहुंचे।

यह दृश्य अपने आप में बेहद विचित्र और हैरान करने वाला होता है।

 परंपरा बनाम मानवता (Tradition vs Humanity)

गोटमार मेला एक ऐसा विरोधाभास है जहां प्रेम की याद में घृणा का प्रदर्शन होता है, जहां जीवन की परिभाषा को मौत से तौला जाता है।

यह सवाल छोड़ जाता है कि क्या किसी परंपरा की आड़ में हिंसा और जान जोखिम में डालना जायज है?

जब तक स्थानीय समुदाय खुद इसके खतरों को महसूस नहीं करेगा और इसे बदलने का मन नहीं बनाएगा, तब तक प्रशासन की हर कोशिश नदी के बीच झंडे की तरह खड़ी रहेगी, जिस पर हर साल पत्थर बरसाए जाते हैं।

बहरहाल 23 अगस्त को होने वाले गोटमार मेले के आयोजन को लेकर कलेक्टर-एसपी समेत जिले के आला अधिकारी शहर में शांति समिति की बैठकें की गई, जहां उपस्थित नागरिकों को कलेक्टर अजयदेव शर्मा एवं एसपी सुंदर सिंह कनेश द्वारा गोफन न चलने के साथ शांतिपूर्वक त्योहार मनाने की समझाइश दी गई।

साथ ही पांढुर्णा शहर में धारा 144 लागू की गई।

इसके बाद भी सैकड़ों वर्ष पुरानी गोटमार मेले की परम्परा में खून बहाये जाने की पूरी तैयारियां जोर शोर से प्रशासन के सामने चल रही है।

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