Govardhan Puja 2025: गोवर्धन पूजा हिंदू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है, जो दिवाली के ठीक अगले दिन मनाई जाती है।
यह पर्व केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि प्रकृति, कृषि और पर्यावरण के प्रति कृतज्ञता का एक भावपूर्ण उत्सव है।
इस लेख में हम गोवर्धन पूजा के महत्व, इसकी कथा, पूजन विधि और अन्नकूट में 56 भोग (छप्पन भोग) क्यों और कैसे चढ़ाया जाता है, इसके बारे में विस्तार से जानेंगे…
इस साल 2025 में, कार्तिक अमावस्या दो दिन तक रहने के कारण, गोवर्धन पूजा दिवाली के तीसरे दिन यानी 22 अक्टूबर बुधवार को मनाई जा रही है।
इस दिन कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि है। कई स्थानों पर प्रदोष काल (सूर्यास्त के बाद का समय) में इस पूजा को विशेष शुभ माना जाता है।
गोवर्धन पूजा को ‘अन्नकूट’ क्यों कहते हैं?
‘अन्नकूट’ शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – ‘अन्न’ (अनाज) और ‘कूट’ (पहाड़ या ढेर)। शाब्दिक अर्थ है “अनाज का पहाड़”।
गोवर्धन पूजा के दिन नए अन्न (फसल) की पहली उपज को भगवान को अर्पित करने की परंपरा है।
यह किसानों के लिए विशेष महत्व रखता है, क्योंकि यह फसल के आगमन और प्रकृति की उदारता के प्रति आभार व्यक्त करने का दिन है।
इस दिन घरों और मंदिरों में तरह-तरह के व्यंजनों, मिठाइयों और अन्न से एक विशाल भोग तैयार किया जाता है, जो देखने में एक छोटे पहाड़ जैसा लगता है।
इसी कारण इस पर्व को ‘अन्नकूट’ के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि अन्नकूट का भोग लगाने से दीर्घायु और अच्छे स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।
56 भोग की परंपरा
अन्नकूट की सबसे खास और चर्चित परंपरा है भगवान श्री कृष्ण को 56 प्रकार के भोग (छप्पन भोग) चढ़ाना।
यह संख्या श्री कृष्ण की एक लीला से सीधे जुड़ी हुई है।
पौराणिक कथा और गणित
पौराणिक कथा के अनुसार, जब देवराज इंद्र के कोप से बचाने के लिए श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी उंगली पर सात दिनों तक उठाकर रखा था।
इस दौरान, सारे ब्रजवासी गोवर्धन पर्वत की छाया में सुरक्षित रहे। इस पूरे समय में, ब्रजवासियों ने भगवान कृष्ण का हौसला बनाए रखने और उन्हें शक्ति देने के लिए उन्हें भोजन कराया।
मान्यता है कि इन सात दिनों में, गोकुलवासियों ने प्रतिदिन आठ-आठ प्रकार के व्यंजनों का भोग श्री कृष्ण को लगाया।
7 दिन × 8 व्यंजन प्रतिदिन = 56 व्यंजन
इस गणित के आधार पर, भगवान कृष्ण के प्रति कृतज्ञता और प्रेम व्यक्त करने के लिए छप्पन भोग चढ़ाने की यह परंपरा शुरू हुई और आज तक चली आ रही है।
यह भोग केवल भोजन नहीं, बल्कि सेवा, समर्पण और श्रद्धा का प्रतीक है।
56 भोग में क्या-क्या शामिल होता है?
छप्पन भोग एक अत्यंत विस्तृत और पौष्टिक भोजन है, जिसमें शाकाहारी व्यंजनों की एक पूर्ण श्रृंखला होती है।
इसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित चीजें शामिल की जाती हैं:
- भात (चावल): साधारण चावल या मीठे चावल।
- दालें: अरहर, मूंग, उड़द आदि से बनी विभिन्न प्रकार की दालें।
- सब्जियाँ: आलू, बैंगन, फूलगोभी, भिंडी, लौकी, कद्दू आदि से बनी मिश्रित सब्जियाँ (मिक्स वेजिटेबल)।
- कढ़ी: दही और बेसन से बनी कढ़ी।
- रोटी/पूड़ी: गेहूं, बाजरे या मक्के की रोटी और तली हुई पूड़ियाँ।
- पकवान: खिचड़ी, पुलाव, बिरयानी (शाकाहारी)।
- दही और रायता: सादा दही या विभिन्न प्रकार के रायते।
- चटनी: हरी धनिया, पुदीना या आम की चटनी।
- अचार: नींबू, आम, या करी पत्ते का अचार।
- पापड़: विभिन्न प्रकार के पापड़।
- सलाद: ककड़ी, टमाटर, मूली आदि का सलाद।
- मिठाइयाँ:
- खीर या पायस
- हलवा (सूजी, गाजर, बाजरे का)
- लड्डू (बूंदी, मोतीचूर, तिल)
- जलेबी
- इमरती
- रसगुल्ला
- गुलाब जामुन
- मालपुआ
- नमकीन: मठरी, नमकपारे, चिवड़ा आदि।
- पान और मुखवास: इलायची, सौंफ, सुपारी।
इस पूरे भोग को एक बड़े थाल या चौकी पर सजाया जाता है, जो अन्न के एक छोटे पहाड़ जैसा प्रतीत होता है और फिर भगवान श्री कृष्ण को अर्पित किया जाता है।
गोवर्धन पूजा की पौराणिक कथा: इंद्र का अहंकार और कृष्ण की लीला
गोवर्धन पूजा की उत्पत्ति का वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण में मिलता है। द्वापर युग में, ब्रजवासी हर साल इंद्रदेव की पूजा करके उन्हें प्रसन्न करते थे, ताकि वे समय पर वर्षा करें और अन्न की पैदावार अच्छी हो।
मगर एक बार श्री कृष्ण ने इस परंपरा पर सवाल उठाया।
उन्होंने ब्रजवासियों से कहा कि हमें इंद्र की नहीं, बल्कि गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि यही पर्वत हमारी गायों को हरी-हरी घास देता है, जिससे हमें दूध मिलता है।
इस पर्वत पर ही हमारी गायें चरती हैं और यही हमारे जीवन का आधार है।
श्री कृष्ण की बात मानकर सभी ब्रजवासियों ने गोवर्धन पर्वत और गायों की पूजा शुरू कर दी।
इससे इंद्रदेव अत्यंत क्रोधित हो गए। उन्होंने अपने अहंकार में आकर ब्रज में मूसलाधार वर्षा शुरू कर दी।
तब श्री कृष्ण ने अपनी दिव्य शक्ति से समस्त ब्रजवासियों की रक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा (छोटी) उंगली पर उठा लिया।
सभी ब्रजवासी और उनकी गायें सात दिनों तक गोवर्धन पर्वत की छत्रछाया में सुरक्षित रहे।
अंततः, इंद्रदेव को अपनी भूल का एहसास हुआ। उन्होंने श्री कृष्ण से क्षमा मांगी और उन्हें भगवान विष्णु का अवतार माना। तभी से गोवर्धन पूजा का पर्व मनाया जाने लगा।
गोवर्धन पूजा की विधि: स्टेप बाय स्टेप गाइड
सुबह जल्दी उठकर स्नान: इस दिन सूर्योदय से पहले उठकर पवित्र नदी या साधारण पानी से स्नान करें।
गोवर्धन पर्वत का निर्माण: घर के आंगन या पूजा स्थल पर गाय के गोबर से गोवर्धन पर्वत का चित्र बनाएं या एक छोटा सा पर्वत बनाएं। गोबर को पवित्र माना जाता है और इसमें माँ लक्ष्मी का वास माना जाता है।
मूर्ति स्थापना: गोवर्धन पर्वत के बीच में या सामने श्री कृष्ण की मूर्ति या चित्र स्थापित करें।
पूजन: गोवर्धन पर्वत और श्री कृष्ण को फूल, अक्षत, चंदन, धूप, दीप आदि अर्पित करें।
भोग लगाना: तैयार किया गया अन्नकूट और 56 भोग का प्रसाद भगवान को अर्पित करें। इसके बाद परिक्रमा करें।
गाय-बैल की पूजा: इस दिन गाय और बैल को स्नान कराकर, उन्हें फूलों की माला पहनाएं, उन्हें मिठाई खिलाएं और उनकी आरती उतारें। गाय को हमारी संस्कृति में माता का दर्जा प्राप्त है।
कथा श्रवण: गोवर्धन पूजा की कथा का पाठ करें या सुनें।
दान-दक्षिणा: ब्राह्मण को भोजन कराएं और यथाशक्ति दान-दक्षिणा दें।
गोवर्धन पूजा का आधुनिक महत्व: प्रकृति संरक्षण का संदेश
गोवर्धन पूजा का महत्व केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि पर्यावरणीय और सामाजिक भी है। यह पर्व हमें सिखाता है कि:
प्रकृति ही असली देवता है: पहाड़, नदियाँ, भूमि और पशु-पक्षी हमारे जीवन के आधार हैं। इनके प्रति हमें कृतज्ञ रहना चाहिए।
पर्यावरण संरक्षण: गोवर्धन पर्वत की पूजा प्रकृति के प्रति सम्मान का प्रतीक है। यह हमें पर्यावरण की रक्षा करने का संदेश देती है।
कृषि और अन्न का महत्व: अन्नकूट का भोग हमें अन्न के महत्व और उसे बर्बाद न करने की सीख देता है।
पशु-पालन का महत्व: गाय की पूजा हमें पशुधन के प्रति अपनी जिम्मेदारी का अहसास कराती है।
गोवर्धन पूजा और अन्नकूट का पर्व हमारी सनातन संस्कृति की सुंदरता और गहराई को दर्शाता है।
56 भोग चढ़ाने की परंपरा भक्ति, सेवा और समर्पण का एक जीवंत उदाहरण है।
यह त्योहार हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर जीवन जीने और अपनी जड़ों से जुड़े रहने की प्रेरणा देता है।