Chinnamasta Mata: देवी छिन्नमस्ता हिंदू धर्म की दस महाविद्याओं में एक अत्यंत ही रहस्यमयी, गहन और विचित्र स्वरूप वाली देवी हैं।
उनका नाम ही उनके स्वरूप का वर्णन करता है – ‘छिन्न’ यानी ‘कटा हुआ’ और ‘मस्ता’ यानी ‘मस्तक’।
वह वह देवी हैं जिन्होंने स्वयं अपना सिर काटकर अपने हाथ में धारण किया है।
यह रूप भले ही आम लोगों के लिए भयावह लगे, लेकिन इसके पीछे जीवन, मृत्यु, त्याग, और परम ज्ञान के गहरे रहस्य छिपे हैं।
आइए, जानते हैं देवी छिन्नमस्ता की उत्पत्ति के रहस्य और उनके दार्शनिक महत्व के बारे में…
कौन हैं देवी छिन्नमस्ता? एक अद्भुत स्वरूप
देवी छिन्नमस्ता को मां पार्वती या आदिशक्ति का ही एक उग्र और तांत्रिक रूप माना जाता है।
वह दस महाविद्याओं की सूची में पांचवें या छठे स्थान पर विराजमान हैं।
उनका स्वरूप अन्य सभी देवी-देवताओं से पूर्णतः भिन्न है और सीधे तौर पर जीवन के परम सत्य मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र की ओर इशारा करता है।
उनके स्वरूप का विवरण इस प्रकार है:
- कटा हुआ सिर: देवी के एक हाथ में उनका अपना कटा हुआ सिर है, जिसके मुख से वह स्वयं रक्त की एक धारा पी रही हैं।
- खड्ग: दूसरे हाथ में वह वही तेज खड्ग (तलवार) धारण करती हैं, जिससे उन्होंने अपना सिर काटा था।
- तीन रक्तधाराएं: उनके धड़ से निकली गर्दन से रक्त की तीन धाराएं बह रही हैं। एक धारा उनके अपने कटे सिर की ओर जाती है, और शेष दो धाराएं उनकी दो सहचरियों, डाकिनी और वारिणी (या जया और विजया) के मुख में जा रही हैं, जो उनके साथ खड़ी हैं।
- नग्न अवस्था: देवी पूर्ण रूप से नग्न हैं, जो सांसारिक बंधनों और लज्जा से मुक्ति का प्रतीक है।
- कामदेव और रति: वह कमल के आसन पर खड़ी हैं और उनके पैरों के नीचे प्रेम के देवता कामदेव और उनकी पत्नी रति शयनावस्था में हैं, जो वासना पर विजय का प्रतीक है।
यह स्वरूप अत्यंत उग्र, तामसिक और रहस्यमय है, जो तांत्रिक साधना से गहरा जुड़ाव रखता है।
उत्पत्ति का रहस्य: क्यों काट लिया माता ने अपना ही सिर?
देवी छिन्नमस्ता की उत्पत्ति की कथा उनके स्वरूप की तरह ही अद्भुत और प्रतीकात्मक है।
पौराणिक कथा के अनुसार एक बार मां पार्वती अपनी दो प्रमुख सहचरियों (डाकिनी और वारिणी) के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान करने गईं।
स्नान के दौरान उनकी दोनों सहचरियों को तीव्र भूख लगी। उन्होंने देवी से भोजन की याचना की। लेकिन मां पार्वती जल-क्रीड़ा में इतनी लीन थीं कि उन्होंने सहचरियों की बात नहीं सुनी।
समय बीतता गया और सहचरियों की भूख असहनीय हो उठी। निराश होकर उन्होंने देवी से कहा,
“हे माता! एक सच्ची मां तो अपने बच्चों की भूख मिटाने के लिए अपना रक्त तक दे देती है, लेकिन आप हमारी पीड़ा की ओर ध्यान ही नहीं दे रही हैं।”
यह सुनकर मां पार्वती मुस्कुराईं। उनका क्रोध नहीं, बल्कि करुणा और त्याग का भाव जागृत हुआ।
उन्होंने तत्काल अपने खड्ग का आह्वान किया और उसी से अपना सिर काट दिया। सिर कटते ही उनके धड़ से रक्त की तीन तेज धाराएं फूट पड़ीं।
देवी ने अपना कटा सिर अपने हाथ में ले लिया और दो धाराएँ अपनी भूखी सहचरियों के मुख की ओर मोड़ दीं, जबकि तीसरी धारा से उन्होंने स्वयं अपने कटे सिर के माध्यम से रक्त पान किया।
इससे उनकी सहचरियों की भूख शांत हुई और सभी तृप्त हुए।
इस घटना के पश्चात, देवी के इस स्वरूप को छिन्नमस्ता के नाम से जाना जाने लगा।
यह कृत्य कोई हिंसा नहीं, बल्कि स्वयं का बलिदान देकर दूसरों का जीवन बचाने का प्रतीक है।
क्यों ‘खतरनाक’ मानी जाती है छिन्नमस्ता की साधना? तांत्रिक रहस्य
देवी छिन्नमस्ता की पूजा और साधना को सामान्यतः ‘खतरनाक’ या ‘कठिन’ इसलिए माना जाता है क्योंकि:
- तांत्रिक देवी हैं छिन्नमस्ता: उनकी उपासना का प्राथमिक मार्ग तंत्र-साधना है, जो सीधे और गहन ऊर्जाओं के साथ कार्य करता है। तंत्र में कई ऐसी विधियाँ और मंत्र होते हैं जिन्हें बिना कुशल गुरु के सही मार्गदर्शन के करना खतरनाक हो सकता है। एक छोटी सी गलती साधक के लिए मानसिक और शारीरिक हानि का कारण बन सकती है।
- वासना और त्याग का संतुलन: देवी छिन्नमस्ता का स्वरूप यौन ऊर्जा (कामदेव और रति के ऊपर खड़ी होना) और उस पर पूर्ण नियंत्रण (सिर काटकर स्वयं का रक्त पीना) का प्रतीक है। उनकी साधना का उद्देश्य सांसारिक वासनाओं का दमन नहीं, बल्कि उन पर पूर्ण नियंत्रण पाकर उस ऊर्जा को आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्रेरित करना है। यह एक अत्यंत सूक्ष्म और संवेदनशील प्रक्रिया है, जहाँ साधक का अहंकार और इच्छाएँ पूरी तरह से शुद्ध होनी चाहिए। यदि नियंत्रण खोया, तो विनाश निश्चित है।
- मृत्यु का सीधा सामना: देवी जीवन और मृत्यु के चक्र का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनकी साधना में साधक को मृत्यु के भय से पूर्णतया मुक्त होना पड़ता है और इस परम सत्य को सीधे स्वीकार करना पड़ता है। यह भय मनुष्य की सबसे गहरी मनोवैज्ञानिक जड़ों में बसा होता है, जिसका सामना करना हर किसी के बस की बात नहीं है।
- उग्र और तामसिक स्वभाव: देवी का स्वरूप अत्यंत उग्र माना जाता है। मान्यता है कि उनकी पूजा में थोड़ी सी भी अशुद्धि या अवहेलना करने पर देवी की कृपा के स्थान पर क्रोध का सामना करना पड़ सकता है।
इन सब कारणों से छिन्नमस्ता की साधना सामान्य भक्ति मार्ग से अलग और कहीं अधिक जोखिम भरी मानी जाती है।
इसे केवल उच्च-स्तरीय तांत्रिक और योगी ही गुरु के मार्गदर्शन में करते हैं।
दार्शनिक महत्व: केवल भय नहीं, गहन शिक्षा है
छिन्नमस्ता का स्वरूप सिर्फ भय दिखाने के लिए नहीं है, बल्कि गहन दार्शनिक सत्य समेटे हुए है:
- अहंकार का छेदन: देवी स्वयं अपना सिर काटती हैं, जो ‘अहंकार’ (ego) के पूर्ण त्याग का प्रतीक है। वह सिखाती हैं कि जब तक व्यक्ति का अहंकार है, तब तक वह परम ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकता।
- जीवन का चक्र: रक्त जीवन का प्रतीक है। देवी स्वयं अपना रक्त पीकर यह दर्शाती हैं कि जीवन एक चक्र है – मृत्यु से ही नया जीवन पैदा होता है।
- देने और लेने का संतुलन: वह अपने रक्त से दूसरों को तृप्त करती हैं, यह दर्शाता है कि ब्रह्मांड में ऊर्जा का प्रवाह बना रहता है। त्याग के बिना प्राप्ति नहीं हो सकती।
देवी छिन्नमस्ता केवल एक भयानक चेहरा नहीं हैं। वह जीवन के सबसे गहरे रहस्यों – मृत्यु, त्याग, वासना पर नियंत्रण और अहंकार के विसर्जन – की महान शिक्षिका हैं।
उनकी साधना पथ कठिन अवश्य है, लेकिन जो साधक सच्चे मन और गुरु के मार्गदर्शन में इस पथ पर चलते हैं, उनके लिए देवी चिंताओं को दूर करने वाली ‘चिंतपूर्णी’ और मनोकामनाएँ पूरी करने वाली कृपालु माता बन जाती हैं।
उनका स्वरूप हमें यही संदेश देता है कि सच्चा जीवन वही है, जिसमें दूसरों के कल्याण के लिए स्वयं का त्याग करने का साहस हो।
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