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गयासुर से गयाजी तक: जानिए कैसे एक राक्षस के शरीर पर बनी पितरों की सबसे बड़ी मोक्ष नगरी

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Nisha Rai
Nisha Rai
निशा राय, पिछले 13 सालों से मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इन्होंने दैनिक भास्कर डिजिटल (M.P.), लाइव हिंदुस्तान डिजिटल (दिल्ली), गृहशोभा-सरिता-मनोहर कहानियां डिजिटल (दिल्ली), बंसल न्यूज (M.P.) जैसे संस्थानों में काम किया है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय (भोपाल) से पढ़ाई कर चुकीं निशा की एंटरटेनमेंट और लाइफस्टाइल बीट पर अच्छी पकड़ है। इन्होंने सोशल मीडिया (ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम) पर भी काफी काम किया है। इनके पास ब्रांड प्रमोशन और टीम मैनेजमेंट का काफी अच्छा अनुभव है।

Gayasur Gaya Ji Story: भारत की संस्कृति और धार्मिक मान्यताओं में गया जी तीर्थ का नाम बहुत ही आदर और श्रद्धा के साथ लिया जाता है।

यह वह पवित्र स्थान है जहां पितृों (पूर्वजों) की आत्मा की शांति और मुक्ति के लिए श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान किया जाता है।

ऐसी मान्यता है कि गया जी में किया गया श्राद्ध सीधे पितृों को वैकुंठ (भगवान विष्णु का धाम) की प्राप्ति करवाता है, जहां से उन्हें जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है।

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राक्षस के नाम पर पड़ा मोक्ष नगरी का नाम

लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस पवित्र ‘मोक्ष नगरी’ का नाम एक राक्षस के नाम पर पड़ा है?

जी हां, इस स्थान का नाम ‘गया’ एक महान तपस्वी दैत्य ‘गयासुर’ के नाम पर रखा गया है।

आइए, जानते हैं इस रोचक पौराणिक कथा के बारे में…

गयासुर की तपस्या से डरे देवता

यह कथा श्वेत वाराह कल्प की है, जब धरती पर पाप नाममात्र का था और धर्म अपने पूर्ण रूप में विद्यमान था।

उस समय असुर कुल में एक दैत्य पैदा हुआ, जिसका नाम गयासुर था।

समय के साथ वह विशालकाय होता गया और उसका शरीर एक पहाड़ के समान हो गया।

पुराणों के अनुसार, उसकी एक उंगली की मोटाई डेढ़ योजन (लगभग 12-15 किलोमीटर) और पूरा शरीर लगभग साठ योजन (कई सौ किलोमीटर) लंबा था।

धर्म के प्रभाव से प्रेरित होकर गयासुर कोकाद्रि नामक पर्वत पर अत्यंत कठोर तपस्या करने लगा।

उसने सैकड़ों वर्षों तक बिना भोजन-पानी के और बिना विचलित हुए तप किया।

उसकी इस अद्भुत तपस्या से तीनों लोकों में हलचल मच गई।

देवता, ऋषि-मुनि सभी इस बात से चिंतित हो गए कि अगर गयासुर ने अपनी तपस्या से कोई अनचाहा वरदान मांग लिया तो सृष्टि का संतुलन बिगड़ सकता है।

सभी देवता ब्रह्मा जी के नेतृत्व में भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उनसे प्रार्थना की,

“हे प्रभु! गयासुर की तपस्या से उसकी शक्ति असीमित हो रही है। कृपया उसे ऐसा वरदान दें जिससे उसकी तपस्या भी सफल हो जाए और सृष्टि के नियमों को कोई नुकसान भी न पहुंचे।”

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वह वरदान जिसने बदल दी सृष्टि की व्यवस्था

भगवान विष्णु गयासुर के सामने प्रकट हुए और उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर वरदान मांगने को कहा।

गयासुर ने एक अद्भुत वर मांगा, “हे प्रभु! मेरी इच्छा है कि मेरा शरीर इतना पवित्र हो जाए कि जो कोई भी इसे देखे, छुए या इसके स्पर्श मात्र से ही उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाए और वह सीधे वैकुंठ धाम को जा सके।”

भगवान विष्णु ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे यह वरदान दे दिया।

यहीं से समस्या शुरू हो गई। वरदान मिलते ही गयासुर का शरीर संसार का सबसे पवित्र स्थान बन गया।

लोग उसे छूकर ही सीधे मोक्ष पाने लगे। इससे स्वर्ग, नरक और यमलोक सब सूने होने लगे।

कर्मफल का सिद्धांत ही टूट गया। अब पापी और पुण्यात्मा में कोई अंतर नहीं रहा।

सृष्टि का पूरा चक्र अस्त-व्यस्त हो गया। देवताओं ने अपने कर्तव्यों का त्याग करने का मन बना लिया और त्रिदेवों के पास फिर से सहायता मांगने पहुँचे।

 

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ब्रह्मा जी का यज्ञ 

सृष्टि को इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने एक योजना बनाई।

उन्होंने ब्रह्मा जी से कहा कि वे पृथ्वी के सबसे पवित्र स्थान पर एक महान यज्ञ का आयोजन करें।

ब्रह्मा जी पूरी पृथ्वी पर घूमे, लेकिन उन्हें गयासुर के शरीर से अधिक पवित्र कोई स्थान नहीं मिला, क्योंकि विष्णु के वरदान ने उसे सबसे पवित्र बना दिया था।

अंततः ब्रह्मा जी गयासुर के पास पहुंचे और बोले, “हे महान तपस्वी! भगवान विष्णु की आज्ञा से मुझे एक यज्ञ करना है, लेकिन संसार में तुम्हारे शरीर से बढ़कर कोई पवित्र स्थान है ही नहीं। मैं कहां यज्ञ करूं?”

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गयासुर का अहंकार भंग

ब्रह्मा जी का यह प्रश्न सुनकर गयासुर के मन में अहंकार का भाव जागा।

उसने सोचा, ‘सच तो है, मुझसे बढ़कर पवित्र कुछ भी नहीं है।’ इस ‘मैं’ और ‘मेरा’ के भाव ने उसकी तपस्या से प्राप्त पवित्रता को थोड़ा कम कर दिया। इसी मनोदशा का लाभ उठाते हुए ब्रह्मा जी ने कहा,

“यदि तुम सच्चे दानी हो, तो अपने इस पवित्र शरीर पर मेरा यज्ञ करने की अनुमति दो।”

गयासुर ने स्वेच्छा से अपना शरीर दान कर दिया।

ब्रह्मा जी ने उसे उत्तर दिशा में सिर और दक्षिण दिशा में पैर करके लेटने को कहा।

गयासुर का शरीर इतना विशाल था कि यज्ञ के लिए एक समतल स्थल बनाना जरूरी था।

तब भगवान विष्णु ने गयासुर के शरीर को स्थिर करने और समतल करने के लिए उसके ऊपर एक विशाल शिला रखी।

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‘विष्णुपद मंदिर’ की स्थापना

कहते हैं कि भगवान विष्णु ने स्वयं अपने पैर से उस शिला को दबाया, जिससे उस पर उनके पदचिह्न अंकित हो गए।

यही शिला आज ‘विष्णुपद मंदिर’ में स्थित है और ‘धर्मशिला’ के नाम से प्रसिद्ध है।

इस प्रकार गयासुर के शरीर पर ब्रह्मा जी ने यज्ञ संपन्न किया।

गयासुर ने अपने शरीर का दान देकर सृष्टि की रक्षा की और अपनी पवित्रता को स्थायी बना दिया।

उसके इस त्याग के बाद से ही उसके शरीर का विशाल भू-भाग ‘गया’ कहलाने लगा और यह पितृों की मुक्ति का सबसे पवित्र तीर्थ स्थल बन गया।

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गया जी में श्राद्ध का अद्भुत महत्व और विष्णुपद मंदिर

आज गया जी में जिस स्थान पर विष्णु के पदचिह्न हैं, वहाँ विष्णुपद मंदिर बना हुआ है। यह मंदिर फल्गु नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है।

मान्यता है कि गयासुर के शरीर पर स्थित होने के कारण इस पूरे क्षेत्र में वही पवित्रता विद्यमान है।

यहाँ पिंडदान, तर्पण और श्राद्ध करने का विशेष महत्व है।

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ऐसी मान्यता है कि:

  • गया जी में किया गया श्राद्ध अत्यंत फलदायी होता है और पितृों को तुरंत मोक्ष मिल जाता है।
  • यहां तर्पण करने से मनुष्य की 25 पीढ़ियों तक के पितृ तृप्त हो जाते हैं और उन्हें वैकुंठ की प्राप्ति होती है।
  • यहां केवल एक बार श्राद्ध करने से ही पितृों को जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है और फिर कभी श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
  • विष्णुपद मंदिर में भगवान विष्णु के चरणों के दर्शन करने के बाद ही श्राद्ध कर्म पूर्ण माना जाता है।
  • श्रद्धालु इन पदचिह्नों पर चंदन का लेप लगाते हैं और उसे अपने मस्तक पर लगाकर अपने आप को धन्य महसूस करते हैं

श्राद्ध पक्ष के दौरान यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है, जो अपने पूर्वजों की आत्मिक शांति और मुक्ति की कामना करते हैं।

गया जी की यह पावन भूमि न सिर्फ धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि यह मानवीय संबंधों, श्रद्धा और अपने मूलों के प्रति कृतज्ञता का एक अनूठा प्रतीक भी है।

एक राक्षस के त्याग और भगवान की कृपा से बना यह तीर्थ स्थल दुनिया भर में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है।

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