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खूंखार डाकू रत्नाकर कैसे बने महर्षि वाल्मीकि, किसने दी थी रामायण लिखने की प्रेरणा?

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Nisha Rai
Nisha Rai
निशा राय, पिछले 13 सालों से मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इन्होंने दैनिक भास्कर डिजिटल (M.P.), लाइव हिंदुस्तान डिजिटल (दिल्ली), गृहशोभा-सरिता-मनोहर कहानियां डिजिटल (दिल्ली), बंसल न्यूज (M.P.) जैसे संस्थानों में काम किया है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय (भोपाल) से पढ़ाई कर चुकीं निशा की एंटरटेनमेंट और लाइफस्टाइल बीट पर अच्छी पकड़ है। इन्होंने सोशल मीडिया (ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम) पर भी काफी काम किया है। इनके पास ब्रांड प्रमोशन और टीम मैनेजमेंट का काफी अच्छा अनुभव है।

Valmiki Jayanti 2025: 07 अक्टूबर 2025 को पूरा देश संस्कृत साहित्य के पितामह और महाकाव्य ‘रामायण’ के रचयिता महर्षि वाल्मीकि की जयंती मना रहा है।

यह त्योहार हर साल आश्विन माह की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है।

इस अवसर पर देशभर में शोभा यात्राएं निकाली जाती हैं, धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं और महर्षि के जीवन से प्रेरणा लेकर समाज में शांति और सद्भाव का संदेश फैलाया जाता है।

डाकू रत्नाकर से ‘आदि कवि’ तक का सफर

महर्षि वाल्मीकि का जीवन परिवर्तन और आध्यात्मिक उत्थान की एक अनूठी मिसाल है।

उनके बचपन का नाम रत्नाकर था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, बचपन में ही एक भील समुदाय ने उनका अपहरण कर लिया था और उनका पालन-पोषण एक भील परिवार में हुआ।

परिवार का पेट पालने के लिए वह एक डाकू बन गए और जंगल से गुजरने वाले राहगीरों को लूटते उनकी हत्या तक कर देते थे।

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नारद मुनि को बनाया बंदी

एक दिन, उनकी मुलाकात देवऋषि नारद से हुई। रत्नाकर ने नारद मुनि को भी लूटने का प्रयास किया।

तब नारद मुनि ने उनसे एक सरल लेकिन गहरा प्रश्न पूछा: “रत्नाकर, तुम यह सब पाप अपने परिवार के लिए कर रहे हो, क्या तुम्हारा परिवार तुम्हारे इन पापों का भागीदार बनने को तैयार होगा?

यह सुनकर रत्नाकर आश्वस्त थे कि उनका परिवार उनके साथ खड़ा होगा। लेकिन जब उन्होंने अपने परिवार- माता-पिता, पत्नी और बच्चों से यही सवाल पूछा, तो सभी ने स्पष्ट मना कर दिया।

उन्होंने कहा कि हर व्यक्ति को अपने कर्मों का फल स्वयं भोगना पड़ता है।

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नारद मुनि ने बदला जीवन

यह जवाब रत्नाकर के लिए एक सदमे की तरह था। उनकी आंखें खुल गईं और उन्हें अपने किए पर गहन पश्चाताप हुआ।

वह तुरंत उस स्थान पर लौटे जहां उन्होंने नारद मुनि को बांधा था, उनके चरणों में गिरकर क्षमा याचना की और मुक्ति का मार्ग पूछा।

तब नारद मुनि ने उन्हें ‘राम’ नाम का जप करने का उपदेश दिया।

लेकिन, पापों के बोझ के कारण रत्नाकर के मुख से ‘राम’ नाम नहीं निकल पा रहा था।

तब नारद जी ने उन्हें ‘मरा-मरा’ जपने की सलाह दी, जो कि ‘राम’ का ही उल्टा है।

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‘मरा-मरा’ जप से कैसे बने ‘वाल्मीकि’?

रत्नाकर ने नारद मुनि की आज्ञा का पालन करते हुए ‘मरा-मरा’ का जप शुरू किया।

वह इतनी तन्मयता से ध्यान में लीन हुए कि उन्हें समय और अपने शरीर का होश ही नहीं रहा।

वर्षों तक एक ही स्थान पर बैठे रहने के कारण, उनके शरीर के चारों ओर दीमकों ने अपना घर (वाल्मीकि) बना लिया।

जब नारद मुनि वापस लौटे, तो उन्होंने इसी ‘वाल्मीकि’ (दीमक की टीले) से रत्नाकर को बाहर निकाला।

इस प्रकार, रत्नाकर से ‘महर्षि वाल्मीकि’ का जन्म हुआ।

उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें दिव्य ज्ञान प्रदान किया और संस्कृत का पहला श्लोक रचने का सम्मान दिया।

रामायण लिखने की प्रेरणा कैसे मिली?

महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना का श्रेय एक दिव्य प्रेरणा को दिया है।

कथा के अनुसार, एक बार वह तमसा नदी के किनारे सैर कर रहे थे, जहां उन्होंने एक बहेलिए को एक सारस पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का शिकार करते देखा।

मादा पक्षी अपने साथी की मृत्यु से विलाप करने लगी।

इस दृश्य ने महर्षि के हृदय को झकझोर दिया और दुख के आवेश में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा:

“मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥”

(अर्थ: हे निषाद (बहेलिए)! तुमने काममोहित एक क्रौंच पक्षी को मारकर जो पाप किया है, तुम्हें कभी भी स्थिर प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होगी और तुम्हें यह पाप सदैव यातना देता रहेगा।)

यह संस्कृत साहित्य का पहला श्लोक माना जाता है।

इसके बाद, ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर महर्षि वाल्मीकि को भगवान राम के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन करते हुए एक महाकाव्य लिखने का आदेश दिया।

इसी दिव्य प्रेरणा के फलस्वरूप ‘रामायण’ की रचना हुई, जो आज भी करोड़ों लोगों के लिए आदर्श जीवन का मार्गदर्शक है।

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महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में ही रही थीं सीता जी 

महर्षि वाल्मीकि का जीवन हमें सिखाता है कि कोई भी व्यक्ति कितना भी गहरे पाप में क्यों न डूबा हो, सच्चे पश्चाताप और दृढ़ संकल्प से वह अपना जीवन बदल सकता है और महान बन सकता है।

वे न केवल एक महान ऋषि थे, बल्कि माता सीता ने उनके आश्रम में शरण ली थी और उन्होंने ही लव-कुश को पाल-पोसकर उन्हें ज्ञान और शस्त्र विद्या में निपुण बनाया था।

इस प्रकार, वाल्मीकि जयंती केवल एक जन्मदिन नहीं, बल्कि परिवर्तन, ज्ञान और करुणा के संदेश को फैलाने का एक पावन अवसर है।

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