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Pitru Paksha: कौए को भोजन देने से क्यों तृप्त होते हैं पितर? जानिए रामायण काल की ये प्राचीन कथा

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Nisha Rai
Nisha Rai
निशा राय, पिछले 13 सालों से मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इन्होंने दैनिक भास्कर डिजिटल (M.P.), लाइव हिंदुस्तान डिजिटल (दिल्ली), गृहशोभा-सरिता-मनोहर कहानियां डिजिटल (दिल्ली), बंसल न्यूज (M.P.) जैसे संस्थानों में काम किया है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय (भोपाल) से पढ़ाई कर चुकीं निशा की एंटरटेनमेंट और लाइफस्टाइल बीट पर अच्छी पकड़ है। इन्होंने सोशल मीडिया (ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम) पर भी काफी काम किया है। इनके पास ब्रांड प्रमोशन और टीम मैनेजमेंट का काफी अच्छा अनुभव है।

Pitru Paksha Crow Story: पितृ पक्ष का समय हिंदू धर्म में पूर्वजों यानी पितरों की श्रद्धापूर्वक याद करने और उन्हें तर्पण देने का विशेष पर्व है।

इस दौरान एक प्रथा अक्सर देखने को मिलती है – भोजन का एक हिस्सा निकालकर कौए को खिलाना।

मान्यता है कि बिना कौए को भोजन दिए, पितरों को अर्पित किया गया भोजन अधूरा रह जाता है।

यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और इसकी जड़ें रामायण काल में श्रीराम द्वारा दिए गए एक वरदान में हैं।

कौए का पितृ पक्ष में क्या है महत्व?

पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध कर्म या अमावस्या के दिन यह दृश्य आम है जब लोग अपने घर की छत या आंगन में भोजन का एक हिस्सा रखते हैं और कौए का इंतजार करते हैं।

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, कौआ पितरों का प्रतीक या उनका संदेशवाहक माना जाता है।

ऐसा विश्वास है कि यदि कौआ उस भोजन को स्वीकार कर लेता है, तो इसका अर्थ है कि आपके पितर उस भोजन को ग्रहण करके तृप्त हो गए हैं और वे आपसे प्रसन्न हैं।

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इसके विपरीत, यदि कौआ भोजन को छूता भी नहीं है या नहीं खाता है, तो इसे एक अशुभ संकेत माना जाता है जो यह दर्शाता है कि पितरों को कोई संतुष्टि नहीं मिली है या वे नाराज हैं।

कहा जाता है कि मृत्यु के बाद आत्मा का एक रूप कौए के रूप में भी प्रकट हो सकता है, इसलिए यह माध्यम सीधा और प्रभावी माना जाता है।

कौए से जुड़ी श्रीराम की यह कथा जानते हैं आप?

यह परंपरा केवल एक मान्यता नहीं बल्कि एक ऐतिहासिक और पौराणिक घटना पर आधारित है, जिसका वर्णन श्रीरामचरितमानस में मिलता है।

कथा त्रेतायुग की है। देवराज इंद्र के पुत्र का नाम जयंत था।

एक बार जयंत ने भगवान श्रीराम की शक्ति की परीक्षा लेने का विचार बनाया।

उद्देश्य से उन्होंने एक काले कौए का रूप धारण किया और माता सीता के पास पहुंच गए।

माता सीता उस समय विश्राम कर रही थीं।

कौए के रूप में जयंत ने अपनी तीखी चोंच से माता सीता के पैर में चोंच मारी, जिससे उनका पैर घायल हो गया और रक्त बहने लगा। अपना काम करके जयंत तुरंत वहां से भाग निकले।

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जब भगवान श्रीराम ने माता सीता के घायल पैर को देखा, तो उनका क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया।

उन्होंने तुरंत अपने धनुष पर एक ब्रह्मास्त्र के समान तीर चढ़ाया और उस भागते हुए कौए पर निशाना साध लिया।

वह तीर जयंत का पीछा करने लगा।

डर के मारे जयंत तीनों लोकों में भागते रहे, लेकिन वह तीर उनसे पीछा नहीं छोड़ रहा था।

आखिरकार, वह रक्षा के लिए अपने पिता इंद्रदेव के पास पहुंचे।

इंद्रदेव ने उन्हें समझाया कि इस बाण से उनकी रक्षा केवल स्वयं भगवान श्रीराम ही कर सकते हैं।

श्रीराम के वरदान ने शुरू की परंपरा

इंद्र के कहने पर, जयंत कौए का रूप धारण किए हुए ही भगवान श्रीराम के चरणों में गिर पड़े और क्षमा याचना करने लगे।

उन्होंने अपनी भूल के लिए माफी मांगी। भगवान राम ने कहा कि एक बार चलाए गए बाण को वापस नहीं लिया जा सकता, लेकिन उसके प्रभाव को कम जरूर किया जा सकता है।

इसके बाद, भगवान श्रीराम ने उस बाण से कौए रूपी जयंत की एक आंख फोड़ दी।

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तभी से कौए की एक आंख हमेशा के लिए खराब हो गई, और आज भी कौआ एक आंख से ही देखता हुआ प्रतीत होता है।

जयंत के क्षमा याचना करने और भगवान की शरण में आने से श्रीराम प्रसन्न हो गए।

उन्होंने जयंत को यह वरदान दिया, “हे जयंत, आज से पितृ पक्ष के दौरान कौए के रूप में तुम्हें जो भी भोजन दिया जाएगा, वह सीधे पितृ लोक में रहने वाले पितर देवताओं तक पहुंचेगा और उन्हें तृप्त करेगा।”

भगवान के इस वरदान के बाद से ही पितृ पक्ष में कौए को भोजन खिलाने की यह पवित्र परंपरा शुरू हुई और आज तक चली आ रही है।

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इस प्रकार, यह छोटा सा पक्षी पितरों और जीवित लोगों के बीच एक पवित्र सेतु का काम करता है।

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