Chhath Puja Sindoor: छठ पूजा का महापर्व केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि आस्था, समर्पण और शुद्धता का अनूठा संगम है।
इस पर्व की तैयारियों और रीति-रिवाजों में कई गहरे अर्थ छिपे हैं।
इन्हीं में से एक है व्रती महिलाओं द्वारा नाक से लेकर सिर की मांग तक नारंगी सिंदूर का लंबा टीका लगाना।
यह दृश्य छठ घाटों की शोभा बढ़ाता है और हर किसी का ध्यान खींचता है।

आइए, जानते हैं कि आखिर क्यों यह परंपरा सदियों से निभाई जा रही है और इसका क्या महत्व है।
नारंगी रंग ही क्यों? सूर्य देवता से है सीधा संबंध
आम दिनों में अधिकतर विवाहित महिलाएं लाल रंग का सिंदूर लगाती हैं, लेकिन छठ के विशेष अवसर पर नारंगी रंग को प्राथमिकता दी जाती है।
इसके पीछे का मुख्य कारण छठ पूजा के केंद्र में सूर्य देवता का होना है।
नारंगी या केसरिया रंग सूर्य की उष्मा, ऊर्जा, तेज और जीवनदायिनी शक्ति का प्रतीक माना जाता है।
सूर्योदय और सूर्यास्त के समय आकाश में जो नारंगी आभा दिखाई देती है, इस सिंदूर का रंग उसी का प्रतिबिंब है।
इसे पवित्रता, तपस्या और आध्यात्मिक ऊर्जा से भी जोड़कर देखा जाता है।
व्रती महिलाएं इस रंग को धारण करके अपनी श्रद्धा और सूर्य देव के प्रति समर्पण व्यक्त करती हैं।

नाक से मांग तक लंबा टीका लगाने के पीछे की मान्यताएं
यह केवल एक श्रृंगार नहीं, बल्कि सुहाग, शौर्य और आस्था का प्रतीक है।
इस अद्वितीय तरीके से सिंदूर लगाने के पीछे कई पौराणिक कथाएं और स्थानीय मान्यताएं प्रचलित हैं।
1. वीरवान और धीरमति की शौर्य गाथा
एक लोककथा के अनुसार, प्राचीन समय में वीरवान नाम का एक वीर युवक और धीरमति नाम की एक साहसी युवती थी।
एक बार जंगल में धीरमति पर जंगली जानवरों ने हमला कर दिया, तब वीरवान ने उसे बचाया।
इस घटना के बाद दोनों एक साथ रहने लगे।
एक दिन शिकार के दौरान वीरवान के दुश्मन कालू ने उसे घायल कर दिया। तब धीरमति ने अपने साहस से कालू का सामना किया और उसे मार गिराया।
अपनी पत्नी की इस वीरता से गद्गद होकर घायल अवस्था में ही वीरवान ने अपने रक्त से सने हाथ से धीरमति के सिर पर आशीर्वाद दिया।
उसका खून उसकी मांग से होता हुआ नाक तक लग गया।
तब से, नाक से मांग तक लगा यह लंबा टीका स्त्री के शौर्य, अपने परिवार की रक्षा के प्रण और अटूट प्रेम का प्रतीक बन गया।
यह दर्शाता है कि एक पत्नी सुहाग की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकती है।

2. महाभारत काल से जुड़ी द्रौपदी की कथा
एक दूसरी मान्यता महाभारत काल से जुड़ी हुई है।
जब दुःशासन द्रौपदी का चीरहरण करने के लिए उन्हें सभा में खींचकर ले जा रहा था, तब द्रौपदी ने देखा कि उन्होंने उस दिन सिंदूर नहीं लगाया था।
वह बिना सिंदूर के सभा में जाना नहीं चाहती थीं।
कहा जाता है कि उन्होंने जल्दबाजी में सिंदूर की डिबिया ही उलट दी और वह सिंदूर उनके सिर की मांग से होता हुआ नाक तक लग गया।
वस्त्रहरण की उस दर्दनाक घटना के बाद, द्रौपदी ने तब तक अपने बाल नहीं सँवारे जब तक कि उनका अपमान का बदला नहीं ले लिया।
इस घटना को याद करते हुए, विवाहित महिलाएं इस लंबे सिंदूर के टीके को अपने सुहाग की अखंडता और सम्मान के प्रतीक के रूप में लगाती हैं।
यह उनके अडिग संकल्प और सतीत्व की रक्षा की भावना को दर्शाता है।

सुहाग और दीर्घायु का प्रतीक है लंबा सिंदूर
बिहार और पूर्वांचल की संस्कृति में इस परंपरा का गहरा सामाजिक महत्व भी है।
यहाँ यह दृढ़ता से माना जाता है कि मांग में भरा हुआ सिंदूर पति की लंबी आयु का कारण बनता है।
मान्यता है कि सिंदूर की लकीर जितनी लंबी और स्पष्ट होगी, पति की उम्र भी उतनी ही लंबी होगी और पारिवारिक जीवन में सुख-समृद्धि आएगी।
नाक से सिंदूर शुरू करने का अर्थ यह भी है कि व्रती महिला पूर्ण श्रद्धा और एकाग्रता के साथ सूर्य देव को अर्घ्य दे रही है।
यह श्रद्धा का एक ऐसा ‘सेतु’ है जो उसकी नाक (सांस और जीवन) से जुड़कर उसके सिर (मस्तिष्क और आत्मा) तक पहुँचता है।

छठ पूजा का यह नारंगी और लंबा सिंदूर केवल एक रिवाज नहीं, बल्कि यह स्त्री की शक्ति, उसके सुहाग की मजबूती, और सूर्य देव के प्रति असीम आस्था का द्योतक है।
यह परंपरा सदियों से चली आ रही उन कथाओं को जीवित रखती है जो हमें प्रेम, शौर्य और समर्पण का संदेश देती हैं।
इसलिए, जब भी आप छठ घाट पर यह नज़ारा देखें, तो समझ जाएं कि यह हर एक लकीर एक गाथा, एक विश्वास और एक अटूट बंधन की कहानी कह रही है।


