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जानें क्या है वो 5 वजह, जिसके चलते 15 साल की सत्ता से हाथ धो बैठीं हसीना

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Reason Of Sheikh Hasina Resignation : देश में हिंसा चरम पर हो और प्रधानमंत्री देश छोड़कर ही भाग जाए।

कुछ ऐसा हुआ है भारत के पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में।

जहां 2 महीने से चल रहे आरक्षण विरोधी छात्र आंदोलन के बाद पीएम शेख हसीना ने सिर्फ अपने पद से इस्तीफा दिया बल्कि वो हिंसक माहौल के चलते देश छोड़कर भाग गई।

फिलहाल बांग्लादेश सेना प्रमुख ने ऐलान कर दिया है कि हम अंतरिम सरकार बनाएंगे और देश को अब हम संभालेंगे।

आंदोलन में जिन लोगों की हत्या की गई है, उन्हें इंसाफ दिलाया जाएगा।

PM आवास में तोड़फोड़, सड़कों पर उतरे लाखों लोग

बांग्लादेश में हालात यह है कि प्रदर्शनकारी प्रधानमंत्री आवास में दाखिल हो गए और तोड़फोड़-आगजनी की घटना को अंजाम दिया।

दूसरी ओर राजधानी ढाका में 4 लाख लोग सड़कों पर उतरें और जगह-जगह तोड़फोड़।

इस दौरान पुलिस-प्रदर्शनकारियों के बीच हुई झड़प में सोमवार को 6 लोग मारे गए।

वहीं अब तक 300 लोगों की जाने जा चुकी हैं, इनमें से ज्यादातर छात्र हैं।

ढाका हाईकोर्ट का फैसला या रजाकारों का जिक्र आईए जानतें हैं वो कारण जिसके चलते शेख हसीना को अपनी 15 साल की सत्ता गवानी पड़ी।

हसीना ने किया पाक समर्थक रजाकारों का जिक्र

“अगर स्वतंत्रता सेनानियों के बेटे-पोते को आरक्षण नहीं मिलेगा, तो क्या रजाकारों के पोते-पोतियों को आरक्षण मिलेगा?”

ये बयान एक इंटरव्यू में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने दिया था।

हसीना के रजाकारों के जिक्र से ढाका में चल रहा आरक्षण विरोधी प्रदर्शन और हिंसक हो उठा।

अब हसीना ने जिन रजाकारों का जिक्र किया आखिर वे हैं कौन ?

रजाकार अरबी भाषा का शब्द है। जिसका मतलब होता है स्वयंसेवक या साथ देने वाला। हालांकि बांग्लादेश में इसे बहुत अपमानजनक माना जाता है।

साल 1971 में बांग्लादेश के लिए हुई जंग में पाकिस्तान को सरेंडर करे 2 दिन गुजर चुके थे।

18 दिसंबर की सुबह ढाका के बाहरी इलाके में एक के बाद एक बांग्लादेश की जानी-मानी हस्तियों की 125 लाशें मिलतीं हैं।

ये उन 300 लोगों में थे जिन्हें ‘रजाकारों’ ने बंधक बना लिया था, ताकि उनकी जान के बदले वे बांग्लादेश में लगातार आगे बढ़ रही भारतीय सेना से अपनी बात मनवा सकें।

हालांकि जैसे ही उन्हें पाकिस्तान के घुटने टेक देने की भनक लगी, रजाकारों ने सभी बंधकों को मार डाला। इसी के बाद से रजाकार का मतलब गद्दार हो गया।

कहा जाता है कि शेख हसीना ने प्रदर्शनकारियों को अपमानित करने के लिए उन्हें रजाकार बुलाया था और यहीं उन्हें भारी पड़ा गया।

इस आरक्षण ने छीनी हसीना की गद्दी

बांग्लादेश 1971 में आजाद हुआ था। इसी साल वहां पर 80 फीसदी कोटा सिस्टम लागू हुआ।

इसमें स्वतंत्रता सेनानियों के बच्चों को नौकरी में 30%, पिछड़े जिलों के लिए 40%, महिलाओं के लिए 10% आरक्षण दिया गया। सामान्य छात्रों के लिए सिर्फ 20% सीटें रखी गईं।

कुछ विरोध के बाद 1976 में पिछड़े जिलों के लिए आरक्षण को 20% कर दिया गया। सामान्य छात्रों को इसका थोड़ा फायदा मिला। उनके लिए 40% सीटें हो गईं।

1985 में पिछड़े जिलों का आरक्षण और घटा कर 10% कर दिया गया और अल्पसंख्यकों के लिए 5% कोटा जोड़ा गया। इससे सामान्य छात्रों के लिए 45% सीटें हो गईं।

शुरू में स्वतंत्रता सेनानियों के बेटे-बेटियों को ही आरक्षण मिलता था।

फिर 2009 में स्वतंत्रता सेनानियों के पोते-पोतियों को भी आरक्षण मिलने लगा। इससे सामान्य छात्रों की नाराजगी बढ़ गई।

साल 2012 में विकलांग छात्रों के लिए भी 1% कोटा जोड़ दिया गया। इससे कुल कोटा 56 फीसदी हो गया।

साल 2018 में 4 महीने तक छात्रों के प्रदर्शन के बाद हसीना सरकार ने कोटा सिस्टम खत्म कर दिया था।

लेकिन बीते महीने 5 जून को हाईकोर्ट ने सरकार को फिर से आरक्षण देने का आदेश दिया।

कोर्ट ने कहा कि 2018 से पहले जैसे आरक्षण मिलता था, उसे फिर से उसी तरह लागू किया जाए।

फिर शेख हसीना सरकार ने हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई।

सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी अपील के बाद हाईकोर्ट के फैसले को निलंबित कर दिया था।

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट 21 जुलाई को हाईकोर्ट के फैसले को पलटकर आरक्षण 56% से घटा सिर्फ 7% कर दिया।

बता दे बांग्लादेश में भी भारत की तरह सरकारी नौकरी रोजगार का एक बड़ा जरिया है।

बांग्लादेश के छात्रों को डर है कि आधी से अधिक सीटें ‘कोटा वाले’ खा जाएंगे।

छात्रों का मानना है कि सेनानियों के पोते-पोतियों को आरक्षण देने का कोई मतलब नहीं है। सरकारी नौकरियों में कोटा नहीं, मेरिट की जरूरत होनी चाहिए।

प्रधानमंत्री के साथ-साथ तानाशाह बनती चली गईं हसीना

शेख हसीना 15 साल तक बांग्लादेश के इतिहास में सबसे लंबे समय तक काम करने वाली प्रधानमंत्री तो जरूर रही, लेकिन वह समय के साथ तानाशाह भी बनती चली गईं।

हसीना के प्रशासन में विपक्षी आवाज़ों और असहमति को व्यवस्थित रूप से दबाने का आरोप लगता रहा है।

सत्ता में उनके लंबे शासनकाल में विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर दमन और असहमति के दमन की घटनाएं सामने आई।

उन्होंने विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के साथ-साथ विरोध प्रदर्शनों को भी दबाने में कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी।

मानवाधिकार उल्लंघन और लोकतांत्रिक मानदंडों को खत्म करना

आलोचकों का तर्क है कि हसीना की सरकार ने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं को कमजोर कर दिया था।

उनके कार्यकाल के दौरान चुनाव धांधली और हिंसा के आरोपों से घिरे रहे हैं।

सरकारी एजेंसियां उनके इशारों पर साजिश रचकर विपक्षी नेताओं को जेल में डालती रहीं या उन पर मुकदमों का अंबार लगा दिया।

कुल मिलाकर पुलिस से लेकर अन्य सरकारी एजेंसियों ने विपक्षी नेताओं को फंसाने का काम ज्यादा किया।

निष्पक्षता पर चिंताओं के कारण प्रमुख विपक्षी दलों ने इस बार भी चुनावों का बहिष्कार कर दिया।

इसने देश में अजीब सी स्थिति पैदा कर दी और तब से ही गुस्सा अंदर ही अंदर बहुत दिनों से पल रहा था।

वहीं हसीना की सरकार के तहत मानवाधिकारों के उल्लंघन की कई रिपोर्टें आई थीं। जिनमें लोगों को जबरन गायब करना और न्याय से परे जाकर हत्याएं शामिल हैं।

प्रेस की स्वतंत्रता पर लगाया अंकुश

हसीना प्रशासन को प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा है।

सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों और मीडिया आउटलेट्स को अक्सर उत्पीड़न, कानूनी कार्रवाई या शटडाउन का सामना करना पड़ा।

इससे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

कई लोगों को सरकारी गतिविधियों पर रिपोर्टिंग करने पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने का डर सताने लगा।

हसीना एक “चतुर” राजनीतिज्ञ हैं, लेकिन अब इतिहास उन्हें एक ऐसे नेता के रूप में याद रखेगा जो खुद देश के गुस्से का शिकार हुईं और एक अलोकप्रिय तानाशाह की तरह उन्हें देश से भागना पड़ा।

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