Homeन्यूजदिल्ली हाईकोर्ट का बड़ा फैसला: सास-ससुर की देखभाल न करना वैवाहिक क्रूरता

दिल्ली हाईकोर्ट का बड़ा फैसला: सास-ससुर की देखभाल न करना वैवाहिक क्रूरता

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Nisha Rai
Nisha Rai
निशा राय, पिछले 13 सालों से मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इन्होंने दैनिक भास्कर डिजिटल (M.P.), लाइव हिंदुस्तान डिजिटल (दिल्ली), गृहशोभा-सरिता-मनोहर कहानियां डिजिटल (दिल्ली), बंसल न्यूज (M.P.) जैसे संस्थानों में काम किया है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय (भोपाल) से पढ़ाई कर चुकीं निशा की एंटरटेनमेंट और लाइफस्टाइल बीट पर अच्छी पकड़ है। इन्होंने सोशल मीडिया (ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम) पर भी काफी काम किया है। इनके पास ब्रांड प्रमोशन और टीम मैनेजमेंट का काफी अच्छा अनुभव है।

Delhi High Court on In-laws Care: दिल्ली हाईकोर्ट ने हिंदू विवाह अधिनियम के तहत ‘क्रूरता’ की परिभाषा बताते हुए एक अहम फैसला सुनाया है।

अदालत ने कहा कि भारतीय संदर्भ में, अगर पत्नी अपने सास-ससुर की देखभाल करने में गंभीर लापरवाही या उदासीनता दिखाती है, तो इसे पति के प्रति ‘वैवाहिक क्रूरता’ माना जाएगा।

इस आधार पर कोर्ट ने पत्नी द्वारा तलाक के आदेश को चुनौती देने वाली अपील खारिज कर दी।

कोर्ट ने ‘क्रूरता’ की परिभाषा में क्या जोड़ा?

जस्टिस अनिल क्षत्रपाल और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर की खंडपीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि भारतीय सामाजिक ढाँचे में विवाह सिर्फ दो लोगों का मिलन नहीं, बल्कि दो परिवारों का गठजोड़ होता है।

संयुक्त हिंदू परिवार में माता-पिता इसकी अभिन्न इकाई होते हैं।

ऐसे में, एक जीवनसाथी से यह स्वाभाविक और नैतिक अपेक्षा की जाती है कि वह परिवार के बुजुर्ग सदस्यों के स्वास्थ्य, गरिमा और सम्मान का ध्यान रखे।

अदालत ने कहा, “जब परिवार के बुजुर्गों को सहारे और करुणा की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, उस समय उनकी अनदेखी करना तुच्छ नहीं माना जा सकता। यह व्यवहार पति और उसके परिवार के लिए गहन मानसिक पीड़ा का कारण बनता है, जो विवाह संबंधों के संदर्भ में ‘क्रूरता’ का एक महत्वपूर्ण पहलू है।”

मामले की पृष्ठभूमि: 30 साल पुराना वैवाहिक विवाद

इस मामले की जड़ें 1990 में हुई शादी तक जाती हैं। दंपति का एक बेटा भी 1997 में हुआ।

पति ने पारिवारिक अदालत में तलाक की अर्जी देते हुए आरोप लगाए कि:

  • पत्नी संयुक्त परिवार में रहने को तैयार नहीं थी।
  • वह बिना बताए वैवाहिक घर छोड़कर चली जाती थी।
  • साल 2008 के बाद से उसने वैवाहिक संबंध पूरी तरह तोड़ लिए।
  • पत्नी उस पर और उसके परिवार पर पैतृक संपत्ति को अपने नाम ट्रांसफर करने का दबाव डालती थी।

पति ने 2009 में तलाक के लिए अर्जी दायर की। जवाब में, पत्नी ने पति और उसके परिवार के खिलाफ दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा सहित कई आपराधिक मामले दर्ज करा दिए।

सास-ससुर के प्रति उदासीनता साबित हुई ‘क्रूरता’ 

इस मामले की सबसे महत्वपूर्ण बात यह सामने आई कि पत्नी को अपनी ही सास की गंभीर स्वास्थ्य समस्या के बारे में जानकारी नहीं थी।

पति की मां (सास) चलने-फिरने में असमर्थ थीं और उनकी हिप रिप्लेसमेंट सर्जरी भी हो चुकी थी।

हाईकोर्ट ने इस अज्ञानता को पत्नी की गहरी उदासीनता और पारिवारिक जिम्मेदारियों से पलायन का सबूत माना।

अदालत ने कहा कि अपीलकर्ता (पत्नी) ने जानबूझकर अपने सास-ससुर के प्रति उदासीन और संवेदनहीन रवैया अपनाया, जबकि उनकी उम्र और स्वास्थ्य की स्थिति विशेष देखभाल और सहानुभूति की माँग कर रही थी।

‘बदले की कार्रवाई’ और वैवाहिक दायित्वों से इनकार भी बना आधार

पारिवारिक अदालत ने पहले ही यह माना था कि पत्नी द्वारा बदले की भावना से दर्ज कराए गए मुकदमे और लंबे समय तक वैवाहिक दायित्वों (Marital Consortium) से इनकार, पति के लिए गंभीर मानसिक पीड़ा का कारण बने।

हाईकोर्ट ने इस निष्कर्ष को बरकरार रखते हुए कहा कि “पति के खिलाफ लगातार आपराधिक मुकदमे दायर करना और वर्षों तक वैवाहिक संबंधों को निभाने से इनकार करना, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(ia) के तहत स्पष्ट रूप से मानसिक क्रूरता है।”

पत्नी ने हाईकोर्ट में दावा किया था कि उसकी शिकायतें वाजिब थीं और निचली अदालत ने गलत सबूतों पर भरोसा किया। लेकिन अदालत ने इन तर्कों को खारिज कर दिया।

फैसले का सामाजिक प्रभाव

दिल्ली हाईकोर्ट का यह फैसला भारतीय पारिवारिक कानून में एक मिसाल कायम करता है। यह फैसला:

  1. पारिवारिक जिम्मेदारियों को कानूनी महत्व देता है: इसने स्पष्ट कर दिया कि वैवाहिक जीवन में सिर्फ पति-पत्नी के बीच के व्यवहार ही नहीं, बल्कि परिवार के बुजुर्गों के प्रति दायित्व भी महत्वपूर्ण हैं।
  2. बुजुर्गों की देखभाल पर जोर: यह फैसला समाज में बुजुर्गों की बदलती स्थिति और उनके प्रति होने वाली उपेक्षा को कानूनी नजरिए से देखता है।
  3. ‘क्रूरता’ की व्याख्या का विस्तार: अदालत ने ‘क्रूरता’ की परिभाषा को शारीरिक या सीधे मानसिक उत्पीड़न से आगे बढ़ाकर पारिवारिक संबंधों में होने वाली लापरवाही और भावनात्मक उदासीनता तक पहुँचाया है।

हालांकि, यह फैसला एक विशेष मामले की परिस्थितियों पर आधारित है, जहां पत्नी का व्यवहार लगातार और गंभीर रूप से उदासीन पाया गया।

यह जरूरी नहीं कि हर छोटी-मोटी लापरवाही को इसी तरह ‘क्रूरता’ माना जाए।

फिर भी, यह निर्णय भारतीय परिवारों में बुजुर्गों की भूमिका और उनकी देखभाल की नैतिक-कानूनी अहमियत को रेखांकित करता है।

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