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‘गोबर इकोनॉमी’ देगी डॉलर, गोवंश का भी होगा संरक्षण

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Gobar economy will give dollars: अन्नदाता ही भारत काभाग्यविधाता

भारत का ह्रदय प्रदेश मध्यप्रदेश पिछले डेढ़ दशक में कृषि के क्षेत्र में देश का सिरमौर बनकर उभरा है।

प्रदेश सरकार द्वारा किए गए कृषि संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के प्रयासों और किसानों ने खेती में आधुनिक तकनीकी के इस्तेमाल से अनाज उत्पादन में एमपी को बाकी राज्यों से आगे कर दिया।

लेकिन, आज समय की मांग रासायनिक और मशीनी खेती के इस मॉडल में परिवर्तन करने की है क्योंकि जल्दी और ज्यादा अनाज उगाने वाला खेती का ये तरीका प्रदेश और देश के किसानों को कर्जदार बना रहा है।

वहीं जीवन के लिए जरूरी हवा पानी मिट्टी को प्रदूषित कर रहा है। खेती का ये आधुनिक मॉडल कैसे पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है, ये अगले लेख में विस्तार से पढ़िए।

अभी किसान अधिक अनाज उत्पादन के बावजूद क्यों कर्ज के जाल में फंसता जा रहा है और इस कर्जजंजाल से हमारे अन्नदाता को कैसे बाहर निकाला जा सकता है।

इस बात पर गौर कर लेते हैं। बात करें किसानों के कर्ज की तो इस मामले में मध्य प्रदेश के किसान देश में 11वें नंबर पर आते हैं।

मध्य प्रदेश में किसान परिवारों पर औसतन 74, 500 रुपये का कर्ज़ है। उधर मध्यप्रदेश पर कर्ज का बोझ लगभग 3.95 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया है।

प्रदेश सरकार हर साल करीब 20 हज़ार करोड़ रुपये का कर्ज़ ब्याज़ के तौर पर चुकाती है। प्रदेश सरकार की साल भर की आमदनी अनुमानित 2.25 लाख करोड़ रुपये है और खर्च इससे 54 हजार करोड़ अधिक है।

इस लिहाज से प्रदेश के हर नागिरक पर लगभग 40 हजार रुपये का सरकार की तरफ से कर्ज लादा जा रहा है और इसमें निरंतर वृद्धि हो रही है।

मध्य प्रदेश में किसानों की संख्या लगभग 100 लाख यानी 1 करोड़ है। इसमें 1 हैक्टेयर तक जोत सीमा वाले सीमांत किसान 38 लाख 91 हजार हैं।

वहीं लघु किसान जिनकी जोत सीमा 1 से दो हैक्टेयर के बीच है, उनकी संख्या 24 लाख 49 हजार है। प्रतिशत के हिसाब से प्रदेश में 48.3 प्रतिशत सीमान्त कृषक हैं जबकि 27.15 प्रतिशत लघु कृषक हैं।

ये स्वभाविक है जिस प्रदेश सरकार की गाड़ी कर्ज के ईंधन से चल रही हो तो वहां की आवाम कैसे कर्ज से बच सकती है। जनता भी कर्ज लेकर घी पी रही है।

Gobar economy will give dollars: डराते हैं देश पर विदेशी कर्ज के आंकड़े

हमने बचपन में दादा-दादी से यही कहते सुना कि बेटा एक रोटी कम खा लेना लेकिन ब्याज पर उधार मत लेना। लेकिन, आज स्थिति इसके बिलकुल विपरीत है।

मकान से लेकर घर का सामान। कार से लेकर टीवी मोबाइल फ्रीज सब कर्ज लेकर खरीदे जा रहे हैं और आधी से ज्यादा तनख्वाह ईएमआई में जा रही है।

ये हालात आम आदमी के हैं तो सरकार की स्थिति भी कोई बेकर्ज की नहीं है। भारत पर विदेशी ऋण की बात करें तो अनुमानित 663.8 अरब डॉलर (55,380 अरब रुपये) तक पहुंच गया है।

इसे देश के हर नागरिक पर बांटा जाए तो प्रत्येक के हिस्से में लगभग 1.40 लाख रुपये बैठता है। उधर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी IMF ने भारत की आर्थिक स्थिति की समीक्षा करते हुए एक रिपोर्ट जारी की थी।

इसके मुताबिक, भारत पर लगातार कर्ज बढ़ता जा रहा है। रिपोर्ट में कहा गया कि सरकार इसी रफ्तार से उधार लेती रही तो 2028 तक देश पर GDP का 100% कर्ज हो सकता है।

कर्ज के ये अनुमानित आंकड़े डराते हैं। हमारी आने वाली पीढ़ी के बारे में गंभीरता से चिंतन की जरूरत है। यदि ये ही स्थिति रही तो हम सात पुश्तों तक भी कर्ज की गुलामी से उबर नहीं पाएंगे।

भारत की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। 142 करोड़ आबादी वाला देश एक अनुमान के मुताबिक अगले 12 वर्षों में 150 करोड़ को पार कर जाएगा।

नाबार्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में अभी 10 करोड़ से अधिक परिवार खेती पर निर्भर हैं यानि कि देश की कुल जनसंख्या का 61.5 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण भारत में निवास करता है और कृषि पर निर्भर है।

वो कहते है ना आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया। आमदनी और खर्च के मामले में यही आबादी पिछड़ गई है। इस 61 फीसदी आबादी की आमदनी का सबसे ज्यादा हिस्सा ईंधन (पेट्रोल-डीजल) पर खर्च हो रहा है।

कहने का मतलब ग्रामीणों के लिए ये गैर जरूरी नहीं लेकिन जरूरी भी नहीं है। शायद यही वजह है कि भारत सरकार कच्चे तेल पर पानी की तरह पैसा बहाने को मजबूर है।

भारत सरकार देश के नागरिकों के लिए हर साल 150 अरब डॉलर खर्च कर कच्चा तेल खरीदती है यानि हमारी सरकार को कच्चे तेल की ज़रूरतों का लगभग 84% आयात करना पड़ता है।

साथ ही हम अपनी घरेलू एलपीजी खपत का 60 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा आयात करते हैं। यानि हर साल 18.3 मिलियन मीट्रिक टन गैस हम डॉलर देकर खरीदते हैं।

जबकि हमारा विदेशी मुद्रा भंडार करीब 681.688 अरब डॉलर के आस पास है। खुदा ना खास्ता तेल सप्लाई देशों में कभी कोई संकट की स्थिति आ जाए तो हमारा विदेशी मुद्रा भंडार तो कच्चा तेल खरीदी में ही खर्च हो जाएगा।

फिर देश की बाकी जरूरतों का सामान का क्या होगा। हालांकि भारत सरकार साल 2027 तक 5 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी बनाने का लक्ष्य लेकर चल रही थी।

लेकिन, सरकार ने तेज विकास दर और संभावनाओं के खुलते दरवाजों को देखते हुए अपना लक्ष्य 11 गुना तक बढ़ा दिया है।

Gobar economy will give dollars: आर्थिक विशेषज्ञों का ये भी अनुमान है

अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि 2050 तक भारत की जीडीपी 30 ट्रिलियन डॉलर को पार कर जाएगी।

यदि ऐसा हुआ तो ये अमेरिका से बड़ी इकोनॉमी होगी। इस रफ्तार से बढ़ने पर, भारत की अर्थव्यवस्था के कुछ और अनुमान ये रहे –

  • साल 2050 तक भारत की प्रति व्यक्ति आय 21,000 डॉलर हो जाएगी।
  • 2050 तक भारत दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होगी।
  • 2050 तक भारत की अर्थव्यवस्था में निर्यात और खपत मज़बूत रहेगी।
  • 2050 तक भारत की अर्थव्यवस्था उच्च-विकास के चरण में होगी।

पेट्रोलडीजल का संकट हुआ तो खेती का क्या होगा?

हजारों वर्षों से भारत में बैलों से खेती करने की परंपरा रही है। लेकिन, अब आधुनिक उपकरणों के इस्तेमाल से खेती करना पारंपरिक तरीके से ज़्यादा आसान और सरल हो गया है।

लेकिन, ये सस्ता कतई नहीं है। आज के दौर में अनाज उत्पादन करने में हमारे किसान पूरी तरह से मशीनों पर निर्भर हैं। अनाज का उत्पादन कई गुना बढ़ा है लेकिन फसल उगाने की लागत भी कई गुना बढ़ गई है।

खेत जोतने, बखरने, बोने और काटने, यहां तक कि अनाज को बेचने तक का काम मशीनों से हो रहा है। किसान आवागमन के लिए भी पेट्रोल-डीजल पर पूरी तरह से निर्भर है।

अब गाड़ीबैल से आने जाने का चलन लगभग खत्मसा हो गया है। उसके स्थान पर मोटरसाइकिल या चारपहिया वाहन ने ले ली है। अब हल, बख्खर नहीं, ट्रैक्टर से खेत जुताई बखराई और बुआई होती है।

खेती में बैलजोड़ी का इस्तेमाल ना के बराबर हो गया है। कहना गलत नहीं होगा कि खेती किसानी पेट्रोल-डीजल पर डिपेंडेंटेंड हो गई है।

कुछ राज्यों के कुछ जिले अपवाद हो सकते हैं। जहां पारंपरिक खेती यानि बैल जोतकर की जा रही हो, लेकिन ये आंकड़ा बहुत मामूली रह गया है और मध्यप्रदेश में तो ये परंपरा बिसरा ही दी गई है।

ऐसे में जरा सोचिए जिस दिन किसानों को डीजल-पेट्रोल नहीं मिलेगा। तब खेती की स्थिति क्या होगी। एक साल भी किसान अनाज का उत्पादन नहीं कर पाया तो अन्नदाता का क्या होगा।

देश की अर्थव्यवस्था का क्या होगा। पहले से कर्जदार भारत और कर्ज के बोझ तले नहीं दब जाएगा। ये हम इसलिए सोच सकते हैं क्योंकि दुनिया में पेट्रोलियम और कच्चे तेल के लिए जिस तरह से मार-काट मची है। कभी भी दुनिया के सामने कच्चे तेल का महासंकट खड़ा हो सकता है।

भारत में कृषि से जुड़ी कुछ खास बातें:

  • भारत में कृषि क्षेत्र में पिछले पांच सालों में औसतन सालाना18% की वृद्धि हुई है।
  • साल 2021-22 में कृषि उत्पादों का निर्यात 50 बिलियन डॉलर से ज़्यादा रहा, जो अब तक का सबसे ज़्यादा निर्यात है।
  • साल 2021 में भारत में कृषि भूमि का क्षेत्रफल05 प्रतिशत था।

कृषि क्षेत्र से जुड़े कुछ आर्थिक तथ्य:

  • कृषि क्षेत्र से जुड़ी गतिविधियां भारत की जीडीपी का लगभग 22%हिस्सा देती हैं।
  • कृषि क्षेत्र से जुड़ी गतिविधियों से ग़रीबी कम करने में काफ़ी मदद मिलती है।

Gobar economy will give dollars: एक युक्ति, कर्ज से दिला सकती है मुक्ति

अब सवाल ये है कि किसानों के सामने जीवाश्म ईंधन के अलावा खेती की मशीनों को चलाने का कोई दूसरा विकल्प है। यदि नहीं है तो क्या कोई नया साधन खोजा जा सकता है।

इसका जवाब है हां। डीजल के स्थान पर एथेनॉल उपयोग करने की योजना देश में चल रही है, लेकिन ये अभी दूर की कौड़ी लगती है।

एक और बड़ा विकल्प बॉयोगैस (मिथेन) हो सकता है जो खेती किसानी में मील का पत्थर साबित हो सकता है। मीथेन गैस उत्पादन से किसानों को एक साथ कई फायदे मिल सकते हैं।

उदाहरण के तौर पर देश में 10 करोड़ परिवार खेती पर निर्भर हैं, यदि हर किसान रोज 2 लीटर भी मीथेन गैस उत्पादन कर लेता है तो हर दिन देश की 2 लाख मीट्रिक टन गैस आयात करने में कमी आएगी।

सबसे कम उत्पादन का आंकड़ा ही लें तो साल भर में 730 मीट्रिक टन गैस का आयात कम हो जाएगा। जो देश के लाखों डॉलर विदेशी मुद्रा की बचत कराने में कारगर होगा।

हमारे देश में पैसों की बचत का संस्कार बचपन से सिखाया जाता है। आपने भी अपने दादा दादी और नाना नानी से बचपन में सुना होगा कि बेटा 5 रुपये बचाना मतलब 5 रुपये कमाना है।

इस सिद्धांत को सरकारों और देश के किसानों को भी फिर से याद करने की आवश्यकता है। कम से कम खेती किसानी के साधनों में बदलाव को लेकर तो माइक्रो लेवल पर संजीदगी से योजना बनाने की जरूरत है।

इसके लिए कोई बड़े-बड़े वैज्ञानिक और शोध की जरूरत नहीं है। हमारी सनातन संस्कति, परंपरा और संस्कारों में ही खेती के ऐसे राज छिपे हैं।

अभी ज्यादा समय नहीं बीता है। 15 से 20 साल पहले तक खेती बाड़ी में गोवंश सबसे बड़े सहयोगी हुआ करते थे। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के बढ़ाने में पशुओं के चमड़े का पारंपरिक लघु उद्योग भी कारगर था।

तब गांव में किसी पशु की मौत होती थी तो मोची समाज के लोग जानवर का चमड़ा निकल कर जूते और खेती में इस्तेमाल होने वाले बाकी सामान का निर्माण किया करते थे।

ये कार्य समाज के हर घर में होता था, लेकिन आज स्थिति इसके उलट है। अब गांव में कोई भी मोची समाज का व्यक्ति ये कार्य करने को तैयार नहीं है।

ऐसा लगता है आधुनिक भारत के निर्माण में पुराना भारत गुम सा हो गया है। इसके पीछे बड़ा कारण वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा भी मानी जाती है।

खेती में जब से मशीनों का प्रवेश हुआ तब से पशुओं से पारंपरिक खेती करने का तरीका खत्म होने की कगार पर पहुंच गया। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि किसानों ने पशु पालना बंद कर दिया।

परिवार का संपूर्ण पोषण करने वाली हिंदुओं की सबसे पूज्य गौमाता का तो लगता है किसानों के घर से खूंटा ही उखड़ गया है। आज गौमाता और दूसरे गौवंश की हालत क्या है हम सब जानते हैं।

इसकी पीछे खेती में मशीनों की घुसपैठ ही जिम्मेदार है। आधुनिक खेती के फेर में किसान ने अपनी आंखों पर लालच की पट्टी चढ़ा ली है।

वो ऐसा नेत्रहीन बन बैठा है कि उसे अपनी आस्था और संस्कार भी दिखाई नहीं देते। ट्रैक्टर से खेती के कारण जंगल तेजी से मिटा दिए गए। खेत में मेड़ सिर्फ हद बंदी के लिए नाममात्र के लिए छोड़ी जाती है।

चारागाह खत्म कर दिए गए। सरकार ने हर गांव कस्बे में चरनोई की भूमि छोड़ रखी थी उस पर अतिक्रमणकारियों ने कब्जा जमा लिया है।

ऐसे हालात में अब गौवंश जाए तो जाएं कहां, ले देकर सड़क ही बची है। खैर इस टॉपिक पर अगले लेख में विस्तार से चर्चा करेंगे।

अभी बात कर्ज और कर्जदार की चल रही है। भारत की संपन्नता का सबसे प्राचीन प्रमाण याद करें तो ये सर्वविदित है कि भारत एक समय सोने की चिड़िया कहलाता था।

तब खेती किसानी के क्या साधन रहे होंगे। ये बड़ा सवाल है। अब अपने मूल प्रश्न पर लौटते हैं। गोबर से मीथेन गैस उत्पादन होगा कैसे।

सबसे पहले किसानों को उसी पुरानी परंपरा पशु पालन पर लौटना होगा। हर घर में गौवंश का खूंटा फिर से गाढ़ने की जरूरत है।

जिसके घर में जितने ज्यादा पशु उतना ज्यादा दूध दही, गोबर और उतनी ज्यादा मीथेन गैस का उत्पादन और संपन्नता यानि देश को खेती के पारंपरिक तरीके और आधुनिक तरीके के गठजोड़ की जरूरत है।

खेती के औजार बनाने वाली फैक्ट्रियों में मीथेन गैस या एथेनॉल से चलने वाले औजार का निर्माण करने को बढ़ावा देना होगा।

जैसे कि इस दौर में किसान अपनी खेती बाड़ी में सबसे ज्यादा ट्रैक्टर और मोटरसाइकिल का इस्तेमाल कर रहे हैं। सबसे पहले ऐसी मशीनों को मीथेन और एथनॉल से चलने लायक उपयोगी तकनीकी बदलाव की जरुरत है।

ये कोई मुश्किल काम नहीं है। दोपहिया और चारपहिया वाहनों में बॉयोगैस ईंधन को लेकर देश में कई जगह प्रयोग हो रहे हैं। अब इसको बढ़ावा देकर विकसित और व्यापारिक रूप सामने लाने की जरूरत है।

Gobar economy will give dollars: भारत में गायों को सड़क पर छोड़ने की ये वजहें हैं 

हिंदू धर्म में गाय को माता माना जाता है और इसे पवित्र और पूजनीय माना जाता है। गायों को दिव्य मानकर सेवा और दर्शन करने से सभी देवी-देवताओं के दर्शन हो जाने की मान्यता है।

लेकिन, कलयुग में आस्था पर आमदनी और लालच भारी पड़ रहा है, गाय पालन में सबसे बड़ा रोड़ा बन यही है। आस्था के नाम पर अब गौमाता के लिए हिंदू समाज में संवेदना बची है।

किसी में थोड़ी बहुत आस्था है तो वो अपने घर से दरवाजे के सामने खड़ी गाय को एक रोटी खिला देता है।

  • गायों को बीमार होने पर या दुधारू न रहने पर आवारा जानवर की तरह सड़क पर छोड़ दिया जाता है।
  • गायों को राजनीति के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
  • गायों को सड़क पर छोड़ने से वे कसाइयों के हाथ लग जाती हैं या सड़क दुर्घटनाओं का शिकार हो जाती हैं।
  • गायें भूख से तड़पती हुई दूसरों के खेतों में घुस जाती हैं, जहां उन्हें मार-पीट कर भगा दिया जाता है या उफनते नदी नालों में धक्का देकर फेंक दिया जाता है।
  • फसलों का नुकसान करने पर कहीं-कही किसानों द्वारा गायों के पैरों में कीले ठोंक कर उन्हें अपंग बनाने की घटनाओं को भी अंजाम दिया गया है।

जब जागे तभी सवेरा

भारत में 90 के दशक में गोबर गैस की योजना शुरू की गई थी. लेकिन, सरकारी सिस्टम की लचर व्यवस्था या कह लें कि किसानों की बदकिस्मती से हम इस क्षेत्र में आगे ही नहीं बढ़ पाए।

हमारे बाद इस तकनीक को अपनाने वाला चीन हमसे गोबर गैस के उत्पादन में आगे निकल गया। इस योजना पर 90 के दशक में ही ठीक तरीके के काम होता तो शायद आज हम देश में गैस आपूर्ति में आत्मनिर्भर होते।

लेकिन, वो कहते हैं ना जब जागे तभी सवेरा। अब भी वक्त है। बॉयोगैस उत्पादन से सिर्फ डॉलर की ही बचत नहीं होगी। इसके कई फायदे किसानों को और देश की आने वाली पीढ़ी को मिलने वाले हैं।

सबसे बड़ा लाभ देश को फिर से प्राकृतिक खेती से उत्पन्न अनाज से मिलने लगेगा। किसान जब बड़ी तादाद में पशुधन का पालन करेंगे तो प्राकृतिक खाद की उपलब्धता बढ़ेगी और रासायनिक खाद का उपयोग धीरे-धीरे कम होने लगेगा।

खेती में कैमिकल युक्त फर्टिलाइजर के उपयोग में कमी से पानी जहरीला होने से बचेगा यानि खेती पर निर्भर इंसान से लेकर सभी जीव-जंतु पशु-पक्षी की रक्षा होगी। धरती माता की रक्षा होगी।

सबसे बड़ी बात आधुनिक और पारंपरिक खेती के तरीकों को अपनाकर भारत दुनिया को ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने का संदेश देने में कामयाब होगा।

गोबर से डॉलर कमाने के इस मॉडल पर सिर्फ मध्यप्रदेश ही नहीं पूरे देश में अमल की आवश्यकता है। यदि इस रास्ते पर हमारे अन्नदाता चल पड़े तो भारत को सुपर पावर बनने से दुनिया की कोई शक्ति रोक नहीं सकती है।

लेकिन, लाख टके की ये बात नीति निर्माताओं को समझनी होगी कि देश के सबसे बड़े वर्ग अन्नदाता में आज भी भारत को सोने की चिड़िया बनाने का माद्दा है।

(सभी आंकड़े अनुमानित और गूगल रिसर्च पर आधारित हैं)

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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