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पाकिस्तान-सऊदी अरब के बीच ऐतिहासिक रक्षा समझौता: एक पर हमला हुआ तो दूसरा भी देगा जवाब

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Nisha Rai
Nisha Rai
निशा राय, पिछले 13 सालों से मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इन्होंने दैनिक भास्कर डिजिटल (M.P.), लाइव हिंदुस्तान डिजिटल (दिल्ली), गृहशोभा-सरिता-मनोहर कहानियां डिजिटल (दिल्ली), बंसल न्यूज (M.P.) जैसे संस्थानों में काम किया है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय (भोपाल) से पढ़ाई कर चुकीं निशा की एंटरटेनमेंट और लाइफस्टाइल बीट पर अच्छी पकड़ है। इन्होंने सोशल मीडिया (ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम) पर भी काफी काम किया है। इनके पास ब्रांड प्रमोशन और टीम मैनेजमेंट का काफी अच्छा अनुभव है।

Pakistan Saudi Arabia Defence Pact: पाकिस्तान और सऊदी अरब ने अपने रिश्तों को एक नई रणनीतिक ऊंचाई पर पहुंचाते हुए एक ऐतिहासिक रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।

इस समझौते की तुलना NATO (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन) जैसे गठबंधन से की जा रही है, जिसके तहत दोनों देशों में से किसी एक पर हमले को दोनों पर हमला माना जाएगा और वे मिलकर उसका जवाब देंगे।

यह समझौता क्षेत्रीय भू-राजनीति के लिए एक बड़ा बदलाव ला सकता है।

समझौते का मुख्य आधार: ‘एक पर हमला, दोनों पर हमला’

यह समझौता, जिसे “स्ट्रैटेजिक म्यूचुअल डिफेंस डील” (रणनीतिक आपसी रक्षा समझौता) का नाम दिया गया है, बुधवार, 17 सितंबर को सऊदी अरब की राजधानी रियाद में हुआ।

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की सऊदी यात्रा के दौरान अल-यमामा पैलेस में सऊदी क्राउन प्रिंस और प्रधानमंत्री मोहम्मद बिन सलमान के साथ हुई बैठक में इस पर सहमति बनी।

समझौते का सबसे महत्वपूर्ण और चर्चित बिंदु यह है कि “किसी भी देश के खिलाफ आक्रामकता को दोनों के खिलाफ आक्रामकता माना जाएगा।”

इसका सीधा सा मतलब है कि अगर भविष्य में पाकिस्तान या सऊदी अरब पर किसी तीसरे देश द्वारा हमला होता है, तो दूसरा देश उस हमले का सैन्य जवाब देने के लिए बाध्य होगा।

यह एक-दूसरे के प्रति सैन्य सहायता का एक मजबूत वचनबद्धता है।

समझौते के पीछे का उद्देश्य और दावे

आधिकारिक बयानों के अनुसार, इस समझौते का मुख्य उद्देश्य दोनों देशों के बीच आठ दशक पुराने रिश्तों को और मजबूत करना, रक्षा सहयोग बढ़ाना और क्षेत्रीय व वैश्विक शांति में योगदान देना है।

दोनों देशों ने इसे “भाईचारे, इस्लामिक एकजुटता और साझा रणनीतिक हितों” का नतीजा बताया है।

हालांकि, अंतरराष्ट्रीय मीडिया रिपोर्ट्स (जैसे रॉयटर्स) में ऐसे दावे सामने आए हैं जो इस समझौते को और भी गंभीर बनाते हैं।

रिपोर्ट्स के मुताबिक, इस सैन्य सहयोग में “जरूरत पड़ने पर पाकिस्तान के परमाणु हथियारों का इस्तेमाल भी शामिल है।”

यह दावा अगर सही है, तो यह समझौता पूरे मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया की सुरक्षा व्यवस्था के लिए एक गेम-चेंजर साबित हो सकता है।

इसका मतलब यह होगा कि सऊदी अरब, जो खुद एक गैर-परमाणु शक्ति है, अब पाकिस्तान के परमाणु छत्र के नीचे आ सकता है।

भारत की प्रतिक्रिया: ‘चिंता का विषय, लेकिन पहले से थी जानकारी’

इस समझौते पर भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा कि भारत सरकार को इस समझौते की जानकारी पहले से थी।

उन्होंने इसे दोनों देशों के बीच पहले से मौजूद संबंधों को “औपचारिक रूप” देने वाला कदम बताया।

जायसवाल ने यह भी कहा कि “सरकार इससे जुड़े भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा, क्षेत्रीय और वैश्विक स्थिरता पर प्रभावों का अध्ययन करेगी।”

इसके साथ ही उन्होंने यह स्पष्ट किया कि भारत अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और हितों की रक्षा के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है।

क्या यह समझौता भारत के लिए चिंता का विषय है?

यह सवाल लाखों भारतीयों के मन में है। इसका जवाब कई पहलुओं पर निर्भर करता है:

  1. परमाणु आयाम: अगर परमाणु हथियारों के सहयोग का दावा सही है, तो यह निश्चित रूप से एक बहुत बड़ी चिंता का विषय है। इससे पाकिस्तान की आक्रामकता को बढ़ावा मिल सकता है, क्योंकि उसे अब एक शक्तिशाली और अमीर सहयोगी का समर्थन हासिल होगा।
  2. कश्मीर मुद्दा: भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर एक लंबे समय से विवाद का विषय रहा है। भारत हमेशा से मानता आया है कि कश्मीर उसका अभिन्न अंग है, जबकि पाकिस्तान इसे एक विवादित क्षेत्र मानता है। ऐसे में, अगर भविष्य में इस क्षेत्र में कोई तनाव बढ़ता है, तो इस समझौते के चलते स्थिति और जटिल हो सकती है।
  3. सऊदी का रुख: सऊदी अरब भारत का एक महत्वपूर्ण आर्थिक साझेदार है, खासकर तेल आपूर्ति और निवेश के मामले में। ऐसे में, यह देखना होगा कि क्या सऊदी अरब वास्तव में भारत के खिलाफ किसी सैन्य टकराव में सीधे तौर पर शामिल होगा? विशेषज्ञ मानते हैं कि सऊदी का मुख्य focus इसराइल और ईरान पर है, न कि भारत पर।
  4. अमेरिकी गठबंधन का इतिहास: इतिहास इस बात का गवाह है कि पाकिस्तान के ऐसे समझौते हमेशा उसके हक में काम नहीं करते। 1950 और 60 के दशक में पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ SEATO और CENTO जैसे गठबंधन किए थे, जिनमें “एक पर हमला, सभी पर हमला” जैसे प्रावधान थे। लेकिन 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान अमेरिका ने पाकिस्तान की सीधी सैन्य मदद नहीं की, क्योंकि उसने इन्हें क्षेत्रीय विवाद बताया। हो सकता है कि सऊदी अरब भी भविष्य में ऐसा ही रुख अपनाए।

विशेषज्ञों की राय: यह एक ‘संधि’ नहीं है

अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका के पूर्व राजदूत जलमय खलीलजाद जैसे विशेषज्ञों का मानना है कि यह समझौता एक औपचारिक ‘संधि’ (Treaty) नहीं है, बल्कि एक रणनीतिक साझेदारी है।

उन्होंने कुछ अहम सवाल उठाए:

  • क्या यह समझौता हाल ही में इजराइल द्वारा कतर में किए गए हमले की प्रतिक्रिया है?
  • क्या यह उन पुरानी अफवाहों की पुष्टि करता है कि सऊदी अरब, पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम का गुप्त सहयोगी रहा है?
  • क्या सऊदी अरब अब अमेरिका की सुरक्षा गारंटी पर कम निर्भर होना चाहता है?

इन सवालों के जवाब भविष्य में ही मिल पाएंगे।

सतर्कता जरूरी, लेकिन घबराने की नहीं

पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच यह रक्षा समझौता निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है जिस पर भारत को गंभीरता से नजर रखनी चाहिए।

यह भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए नई चुनौतियां पैदा कर सकता है, खासकर परमाणु पहलू के कारण।

हालांकि, अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह समझौता व्यवहार में कितना कारगर साबित होगा।

भारत की मजबूत सैन्य शक्ति, अंतरराष्ट्रीय पकड़, और दूसरे देशों के साथ अच्छे संबंध इन चुनौतियों का मुकाबला करने में मददगार होंगे।

फिलहाल, भारत के लिए सतर्क रहना और अपनी सुरक्षा तैयारियों को और मजबूत करना ही सबसे अच्छी रणनीति होगी।

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