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सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: राज्यपाल बिलों को नहीं लटका सकते, सिर्फ 3 ऑप्शन हैं उनके पास

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Nisha Rai
Nisha Rai
निशा राय, पिछले 13 सालों से मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इन्होंने दैनिक भास्कर डिजिटल (M.P.), लाइव हिंदुस्तान डिजिटल (दिल्ली), गृहशोभा-सरिता-मनोहर कहानियां डिजिटल (दिल्ली), बंसल न्यूज (M.P.) जैसे संस्थानों में काम किया है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय (भोपाल) से पढ़ाई कर चुकीं निशा की एंटरटेनमेंट और लाइफस्टाइल बीट पर अच्छी पकड़ है। इन्होंने सोशल मीडिया (ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम) पर भी काफी काम किया है। इनके पास ब्रांड प्रमोशन और टीम मैनेजमेंट का काफी अच्छा अनुभव है।

Supreme Court-Governor Bill सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को राज्यपालों और राष्ट्रपति की विधेयक (बिल) मंजूरी देने की शक्तियों को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया।

मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अगुआई वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से कहा कि राज्यपाल के पास विधानसभा से पारित बिलों को अनिश्चित काल के लिए रोकने या ‘लटकाए’ रखने का कोई अधिकार नहीं है।

राज्यपाल के पास हैं सिर्फ तीन ही रास्ते

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब कोई बिल राज्यपाल के पास मंजूरी के लिए पहुंचता है, तो उनके पास संविधान के तहत सिर्फ तीन ही विकल्प होते हैं:

  1. बिल को मंजूरी दे दें: इससे वह कानून बन जाएगा।
  2. बिल को विधानसभा के पास फिर से विचार के लिए वापस भेजें: अगर राज्यपाल को लगता है कि बिल में कोई कमी है या उस पर फिर से विचार की जरूरत है।
  3. बिल को राष्ट्रपति के पास भेजें: अगर उन्हें लगता है कि बिल संविधान की केंद्रीय शक्तियों के खिलाफ है या उस पर राष्ट्रपति का फैसला जरूरी है।

कोर्ट ने जोर देकर कहा, “गवर्नर के पास बिल रोकने और प्रक्रिया को अटकाने का कोई अधिकार नहीं है।”

यानी, राज्यपाल ‘न तो हां, न ना’ करके बिल को लटका नहीं सकते।

समयसीमा तय नहीं, लेकिन अनुचित देरी पर होगा हस्तक्षेप

सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम बात यह कही कि बिलों पर मंजूरी देने के लिए राज्यपाल या राष्ट्रपति के लिए कोई निश्चित ‘डेडलाइन’ या समयसीमा न्यायपालिका की तरफ से तय नहीं की जा सकती।

साथ ही, अदालत ‘डीम्ड असेंट’ (यह मान लेना कि अगर समय पर जवाब नहीं दिया गया तो बिल मंजूर मान लिया जाएगा) का सिद्धांत भी लागू नहीं कर सकती।

हालांकि, कोर्ट ने यह भी साफ किया कि अगर बिना किसी ठोस वजह के बहुत लंबे समय तक, या अनिश्चितकाल के लिए देरी की जाती है, तो सुप्रीम कोर्ट अपने संवैधानिक अधिकार का इस्तेमाल करते हुए हस्तक्षेप कर सकता है और राज्यपाल या राष्ट्रपति से जल्द फैसला लेने का ‘सीमित निर्देश’ जारी कर सकता है।

कोर्ट ने कहा, “हम बिल की गुण-दोष (मेरिट) की जांच नहीं कर सकते, लेकिन अनुचित देरी पर हस्तक्षेप कर सकते हैं।”

मामले की पृष्ठभूमि: तमिलनाडु विवाद से शुरुआत

यह पूरा मामला तमिलनाडु की सरकार और राज्य के राज्यपाल आरएन रवि के बीच चले विवाद से उपजा था।

तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, क्योंकि राज्यपाल ने कई बिलों पर महीनों तक कोई फैसला नहीं लिया था और उन्हें लटकाए रखा था।

इसी सिलसिले में, सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल भी एक आदेश में कहा था कि राज्यपाल के पास ‘वीटो पावर’ नहीं है।

साथ ही, अगर राज्यपाल कोई बिल राष्ट्रपति के पास भेजते हैं, तो राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर उस पर फैसला लेना चाहिए।

इसके बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इस पूरे मसले पर सुप्रीम कोर्ट से अपनी राय मांगी और कुल 14 सवाल पूछे।

इन सवालों में मुख्य रूप से राज्यपाल की शक्तियों, न्यायिक समीक्षा और समयसीमा जैसे मुद्दे शामिल थे।

राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे नहीं, लेकिन…

संविधान पीठ ने एक और अहम मुद्दे पर राय दी।

कोर्ट ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत, बिल पर फैसला लेते समय राज्यपाल अपने ‘विवेक’ (Discretion) का इस्तेमाल करते हैं और इस मामले में वे मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे नहीं हैं।

हालांकि, यह विवेक ‘मनमाना’ नहीं हो सकता।

कोर्ट ने एक रूपक देते हुए कहा, “चुनी हुई सरकार की कैबिनेट ही ड्राइवर की सीट पर होनी चाहिए, क्योंकि ड्राइवर की सीट पर दो लोग नहीं हो सकते।”

इसका मतलब यह है कि राज्यपाल संवैधानिक प्रमुख हैं, लेकिन उन्हें चुनी हुई सरकार के कामकाज में अनावश्यक रुकावट नहीं डालनी चाहिए।

न्यायिक समीक्षा का अधिकार बरकरार

कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि भले ही संविधान के अनुच्छेद 361 में राज्यपाल को कुछ सुरक्षा प्रदान की गई है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनके फैसलों या कार्रवाई न करने (Inaction) पर न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती।

अदालत उनकी शक्तियों के दुरुपयोग पर नजर रख सकती है।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने राज्यपाल के पद और उसकी शक्तियों के बारे में काफी हद तक कानूनी स्पष्टता प्रदान की है।

एक तरफ जहां कोर्ट ने राज्यपाल को बिलों को लटकाने से रोका है, वहीं दूसरी तरफ उनके संवैधानिक विवेक का सम्मान भी किया है।

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