Sandhikal And Dada Guru: संधिकाल… लौकिक और परालौकिक दोनों ही जगत में संधिकाल का सबसे ज्यादा महत्व माना गया है।
संधि ही शक्ति के प्रकटीकरण का केन्द्र है। संधिकाल को कई प्रमाणों के जरिए समझा जा सकता है।
निराहारी संत समर्थ दादा गुरू जो सगुण उपासना के प्रवर्तक हैं, उन्होंने संधिकाल और इसके महत्व की बड़े सरल सुबोध और प्रभावपूर्ण ढंग से व्याख्या की है।
समर्थ दादा गुरू बताते हैं कि संधिकाल के दौरान की गई प्रार्थना और साधना सीधे ईश्वर तक पहुंचती है।
उन्होंने ये भी बताया कि क्या होता है संधिकाल और कैसे ये शक्ति के प्राकट्य का साधन बनता है ? आइए समझते हैं
क्या होती है संधि
जहां दो पर्वतमालाएं और दो नदियों का संगम होता है उसे संधि कहा जाता है।
उदाहरण के तौर पर जैसे विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वतमालाएं अमरकंटक में मिलती है, जो आद्य शक्ति मां नर्मदा का उद्गम स्थल है।
जहां-जहां पर्वतमालाओंं और नदियों का संगम होता वो दैवीय ऊर्जा के केन्द्र होते हैं।
इसी संधिकाल में ही अवतारों का प्रकटीकरण होता है, जैसे भगवान राम और भगवान कृष्ण का जन्म इसी अपरिजातकाल में हुआ था।
संधिकाल का महत्व
समर्थ दादा गुरू ने संधिकाल के महत्व पर बड़ी ही सारगर्भित व्याख्या की है।
वे बताते हैं कि संधिकाल में जो भी व्यक्ति तप,प्रार्थना,साधना,जप और उपासना करता है, उसकी कभी अकाल मृत्यु नहीं होती और ना ही उसपर किसी ग्रह का दुष्प्रभाव पड़ता है।
यही वो काल है जब मनुष्य उस परमसत्ता की दिव्य अनुभूतियों को बड़ी सहजता से महसूस कर सकता है।
दादा गुरू बताते है कि संधिकाल का हमारे जीवन से गहरा संबंध है जीव और प्रकृति का ब्रह्माण से जुड़ने में इस काल का विशेष महत्व है।
इस समय होता है संधिकाल –
24 घंटे के समय चक्र में पांच बार संधिकाल होता है।
इस संधिकाल के साधक के लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं रह जाता।
इसे अभिजीत अपराजितकाल भी कहते हैं, जो इस प्रकार हैं –
1 – ब्रह्मकाल : प्रात 3.40 से 4.10 बजे तक
ब्रह्मकाल जिसे ब्रह्ममुहुर्त भी कहा जाता है, इस काल में प्रार्थना और साधना करना श्रेष्ठ माना गया है।
लेकिन, ये वो संधिकाल है जिसमें वायुतत्व प्रधान होता है जो मानसिक शक्ति को पोषित करता है।
साधक को वायु के विशिष्ट गुंण का स्पर्श मिलता है। मन एकाग्रचित्त मन इस संधिकाल में परमतत्व का स्पर्श कर सकता है।
2 – सूर्योदयकाल से 15 मिनट पहले 15 मिनट बाद तक
ये संधिकाल पृथ्वी प्रधान होता है यही कारण है कि इस काल में जप और साधना करने वाला धीर गंभीर और विपरीत परिस्थितियोंं में भी शांत और गंभीर रहता है।
पृथ्वी तत्व सहनशीलता का द्योतक होता है।
3 – दोपहर 11-40 से 12-10 मिनट तक
यह काल अग्नितत्व प्रधान होता है। अग्नि का विशेष गुण ताप है।
इस काल में की गई प्रार्थना और साधना से विचारशक्ति सहज होती है साथ ही कार्यक्षेत्र में तेजी आती है।
4 – सूर्यास्त से 15 मिनट पहले और 15 मिनट बाद तक
यह गौधुली बेला का समय होता है इसमें जलतत्व प्रधान होता है।
जल का गुण है शीतलता यही कारण है कि इस समय हमारा मन शांत,शीतल और सौम्य होता है।
5 – मध्य रात्रि 11-40 मिनट से 12-10 तक
यह काल आकाश तत्व प्रधान होता है, इस काल में जीव मुक्तावस्था में चला जाता है इस दौरान हमारा शरीर मन,बुद्धि मुक्त अवस्था में होता है।
इस दौरान हमारा अवचेतन मन सक्रिय होता है, यह तत्व हमारे शरीर में संतुलन बनाता है।
समर्थ दादा गुरू ने बताए संधिकाल के रहस्य
दादा गुरू बताते हैं कि इन सभी संधिकाल में से एक या दो संधिकाल में व्यक्ति अपने ईष्ट का ध्यान,जप और प्रार्थना करता है, तो उसके जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन आता है।
लेकिन, इसे नित्य बैठकर ही अनुभव किया जा सकता है।
समर्थ दादा गुरू ने संधिकाल के रहस्य को मानव जाति के कल्याण के लिए उजागर किया है।
चौथा खंभा के जरिए हम भी ज्यादा से ज्यादा लोगों तक इसे पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि संधिकाल के रहस्य को जान आप भी इस काल में अपने ईष्ट का ध्यान कर साधनारत हों और अपने जीवन को धन्य बनाएं।
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